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प्रस्तावना
रूपमें निर्दिष्ट तथा फलित होना सिद्ध है जिनका केवली भगवानमें अभाव होता है । ऐसी स्थिति में रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यको क्षुत्पिपासादि दोपोंकी दृष्टिसे भी आप्रमीमासाके साथ असंगत अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। ग्रन्थके सन्दर्भकी जाँच-- ____ अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है ? जहाँ तक मैंने ग्रन्थके सन्दर्भकी जाँच की है
और उसके पूर्वाऽपर कथन सम्बन्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात नहीं मिली जिसके आधार पर केवलीमें क्षुत्पिपासादिके सद्भावको स्वामी समन्तभद्रकी मान्यता कहा जा सके । प्रत्युत इसके, ग्रन्थकी प्रारम्भिक दो कारिकाओंमें जिन अतिशयांका देवागम-नभायान-चामरादि विभूतियोंके तथा अन्तर्वाह्य-विग्रहादि-महोदयोंके रूपमें उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें घातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके अभाव का भी समावेश है उनके विषयमें एक भी शब्द ग्रन्थमें ऐसा नहीं पाया जाता जिससे ग्रन्थकारकी दृष्टिमें उन अतिशयोंका केवली भगवानमें होना अमान्य समझा जाय । ग्रन्थकारमहादयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यस्ति' इन वाक्योंमें प्रयुक्त हुए 'अपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोपित कर दिया है कि वे अहल्केवलीमें उन विभूतियों तथा विग्रहादिमहोदयरूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं परन्तु इतनेसे ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते; क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते हैं भले ही उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूपमें न हों जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवलीमें पाये जाते हैं। और इसलिये उनकी मान्यताका आधार केवल आगमाश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूसरा प्रबल आधार वह गुणज्ञता अथवा