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समीचीन धर्मशास्त्र
नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इच्छा मोहका परिणाम है । और मोह के सद्भावमें केवलित्व भी नहीं बनता । दोनों परस्पर विरुद्ध हैं ।
(ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होने पर केवली में नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्य ज्ञानोपयोगके न बन सकने पर उसका ज्ञान छद्मस्थों (सर्वज्ञों) के समान क्षायोपशमिक ठहरता है - क्षायिक नहीं । और तब ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नामके घातिया कर्मोंका अभाव भी नहीं
बनता ।
(घ) वेदनीय कर्म के उदयजन्य जो सुख दुःख होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवलीके इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति रहती नहीं । यदि केवली में क्षुधा तृपादिकी वेदनाएँ मानी जाएँगी तो इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोध उपस्थित होगा: क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादिक युगपत् नहीं होते ।
(ङ) क्षुधादिकी पीड़ाके वश भोजनादिकी प्रवृत्ति यथाख्यातचारित्रकी विरोधिनी है। भोजन के समय मुनिको प्रमत्त (छठा ) गुणस्थान होता है और केवली भगवान १३ वे गुणस्थानवर्ती होते हैं जिससे फिर छठेमें लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्रको प्राप्त केवली भगवान के भोजनका होना उनकी चर्या और पदस्थ के विरुद्ध पड़ता है ।
इस तरह चुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रतिक्रिया मानने पर केवली में घातिया कर्मो का अभाव ही वटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक बाधा होगी । इसीसे क्षुधादिके अभावको 'घातिकर्मक्षयजः' तथा 'अनन्त ज्ञानादिसम्बन्धजन्य' बतलाया गया है, जिसके मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक बाधा नहीं रहती । और इसलिये टीकाओंपरसे क्षुधादिका उन दोषोंके