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समीचीन धर्मशास्त्र
निबन्धमें प्रो० सा० ने यह प्रतिपादन किया है कि 'रत्नकरण्ड' उन्हीं ग्रन्थकार ( स्वामी समन्तभद्र ) की रचना कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी; क्योंकि रत्नकरण्डके 'तुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता । और इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक नये सन्देहको जन्म दिया है; क्योंकि दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्यकी कृति माने जाते हैं । अस्तु, यह सन्देह भी ठीक नहीं है । इस विषय पर मैंने गहरी जाँचपड़ताल के बाद जो कुछ विचार तथा निर्णय स्थिर किया है उसे नीचे दिया जाता है:
रत्नकरण्डको आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकी कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहबकी जो सबसे बड़ी दलील (युक्ति ) है वह यह है कि रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य में दोपका जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता- अर्थात् आप्तमीमांसाकारका दोष के स्वरूप विषय में जो अभिमत है वह रत्नकरण्डके उक्त पद्य में वर्णित दोप- स्वरूपके साथ मेल नहीं खाना - विरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्यकी कृति नहीं हो सकते।' इस दलीलको चरितार्थ करनेके लिये सबसे पहले यह मालूम होने की जरूरत है कि आप्तमीमांसाकारका दोपके स्वरूप
यह विचार और निर्णय उस चर्चाके बाद स्थिर किया गया है जो ग्रन्थके कर्तृत्वविषयमें प्रोफेसर साहब तथा न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाके दरम्यान लेखों प्रतिलेखों द्वारा 'अनेकान्त' मासिकमें चार वर्ष तक चलती रही है और मेरे उस लेखका एक अंश है जो 'रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय' नापने 'ग्रनेकान्त' के वर्ष में किरण १ से ४ तक प्रकट हुआ है ।