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समीचीन-धर्मशास्त्र ६७, ७०, ८१, ८२, ८४ से ८६, ६५, १०२, १२३ । ऐसा कोई नियम भी नहीं है जिससे एक ग्रन्थकार अपने संपूर्ण ग्रन्थोंमें एक ही पद्धतिको जारी रखनेके लिये वाध्य हो सके । नाना विषयोंके ग्रन्थ नाना प्रकारके शिष्योंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं और उनमें विषय तथा शिष्यरुचिकी विभिन्नताके कारण लेखनपद्धतिमें भी अक्सर विभिन्नता हुआ करती है । यह दूसरी बात है कि उनके साहित्यमें प्रौढता, प्रतिपादनकुशलता और शब्दविन्यासादि कितनी ही बातोंकी परस्पर समानता पाई जाती हो और इस समानतासे 'रत्नकरण्ड' भी खाली नहीं है ।
यहाँ पर ग्रन्थकर्तृत्व-सम्बन्धमें इतना और भी प्रकट कर देना उचित मालूम होता है कि मिस्टर बी० लेविस राइस साहब ने, अपनी 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट श्रवणबेल्गोल' नामक पुस्तककी भूमिकामें रत्नकरंडकके सल्लेखनाधिकार-सम्बन्धी 'उपसर्गे दुर्भिते.......' इत्यादि सात पद्योंको उद्धृत करते हुए, लिखा है कि यह 'रत्नकरंडक' 'आयितवर्मा' का बनाया हुआ एक ग्रन्थ है। यथा
The vow in performance of which they thus starved themselves to death is called Sallekhana and the following is the description of it in the Ratnakarandaka, a work by Ayit-varmma.
परन्तु आयितवर्मा कौन थे, कब हुए हैं और कहाँसे अथवा किस जगहकी ग्रन्थप्रतिपरसे उन्हें इस नामकी उपलब्धि हुई इत्यादि बातोंका भूमिकामें कोई उल्लेख नहीं है। हाँ आगे चलकर स्वामी समन्तभद्रको भी 'रत्नकरंड' का कर्ता लिखा है और यह बतलाया है कि उन्होंने पुनर्दीक्षा लेनेके पश्चात् इस ग्रन्थकी रचना की है