________________
१६
समीचीन धर्मशास्त्र
लिये कभी कोई व्रत, किसी खास व्रत अथवा व्रतसमूहकी याचना किया करते थे । साधुजन भी श्रावकोंको उनके यथेष्ट कर्तव्यकर्मका उपदेश देते थे, उनके याचित व्रतको यदि उचित समझते थे तो उसकी गुरुमंत्रपूर्वक उन्हें दीक्षा देते थे और यदि उनकी शक्ति तथा स्थितिके योग्य उसे नहीं पाते थे तो उसका निषेध कर देते थे; साथ ही जिस व्रतादिकका उनके लिये निर्देश करते थे उसके विधिविधानको भी उनकी योग्यताके अनुकूल ही नियंत्रित कर देते थे । इस तरह पर गुरुजनोंके द्वारा धर्मोपदेशको सुनकर धर्मानुष्ठानकी जो कुछ शिक्षा श्रावकोंको मिलती थी उसीके अनुसार चलना वे अपना धर्म - अपना कर्तव्यकर्म - समझते थे, उसमें 'चूँ चरा' ( किं, कथं इत्यादि) करना उन्हें नहीं आता था, अथवा यों कहिये कि उनकी श्रद्धा और भक्ति उन्हें उस र ( संशयमार्ग की तरफ ) जाने ही न देती थी । श्रावकोंमें सर्वत्र श्राज्ञाप्रधानताका साम्राज्य स्थापित था और अपनी इस प्रवृत्ति तथा परिणतिके कारण ही वे लोग श्रावक । तथा श्राद्ध + कहलाते + ( 2 ) 'श्रृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः ' -सागार घ० टी० 'जो गुरु प्रादिके मुखसे धर्म श्रवण करता है उसे श्रावक ( सुननेवाला ) कहते हैं । '
(२) संपत्तदसरगाई पर्यादियहं जइजरगा सुरई य ।
सामायारि परमं जो खलु तं सावगं बिन्ति ॥ श्रावकप्रज्ञप्ति 'जो सम्यग्दर्शनादियुक्त गृहस्थ प्रतिदिन मुनिजनोंके पास जाकर परम सामाचारीको ( साधु तथा गृहस्थोंके आचारविशेषको ) श्रवश करता है उसे 'श्रावक' कहते हैं ।'
श्रद्धासमन्वित प्रथवा श्रद्धा-सुमा युक्तको 'श्राद्ध' कहते है ऐसा हेमचन्द्र तथा श्रीधरादि प्राचार्येने प्रतिपादन किया है। मुनिजनोंके आचार-विचारमें श्रद्धा रखनेके कारण ही उनके उपासक 'श्राद्ध' कहलाते थे ।