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प्रस्तावना
भी नहीं हो सकती कि इतने सुदूरभूत कालमें-डेढ हजारवर्षसे भी पहले-किसीने बिना वजह ही स्वामी समंतभद्रके नामसे इस ग्रन्थकी रचना की हो, और तबसे अबतक, ग्रन्थके इतना अधिक नित्यके परिचयमें आते और अच्छे-अच्छे अनुभवी विद्वानों तथा आचार्योंके हाथों में से गुजरनेपर भी, किसीने उसको लक्षित न किया हो । इसलिये ग्रन्थके कर्ताविषयका यह संपूर्ण संदेह निमूल जान पड़ता है।
जहाँतक मैं समझता हूँ और मुझे मालूम भी हुआ है, लोगों के इस संदेहका प्रायः एक ही प्रधान कारण है और वह यह है कि, ग्रन्थमें उस 'तर्कपद्धति' का दर्शन नहीं होता जो समन्तभद्रके दूसरे तर्कप्रधान ग्रन्थों में पाई जाती है और जिनमें अनेक विवादग्रस्त विपयोंका विवेचन किया गया है--संशयालु लोग समन्तभद्र-द्वारा निर्मित होने के कारण इस ग्रन्थको भी उसी रंगमें रंगा हुआ देखना चाहते थे जिसमें वे देवगमादिकको देख रहे हैं। परन्तु यह उनकी भारी भूल तथा गहरा भ्रम है । मालूम होता है उन्होंने श्रावकाचारविषयक जैन साहित्यका कालक्रमसे अथवा ऐतिहासिक दृष्टिसे अवलोकन नहीं किया और न देश तथा समाजकी तात्कालिक स्थिति पर ही कुछ विचार किया है। यदि ऐसा होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस वक्त-स्वामी समन्तभद्रके समयमें-और उससे भी पहिले श्रावक लोग प्रायः साधुमुखापेक्षी हुआ करते थे-उन्हें स्वतन्त्ररूपसे ग्रन्थोंको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय करनेकी ज़रूरत नहीं होती थी; बल्कि साधु तथा मुनिजन ही उस वक्त, धर्म विषयमें, उनके एक मात्र पथप्रदर्शक होते थे। देशमें उस समय मुनिजनोंकी खासी बहुलता थी और उनका प्रायः हरवक्तका सत्समागम बना रहता था। इससे गृहस्थ लोग धर्मश्रवणके लिये उन्हींके पास जाया करते थे और धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हींसे अपने