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प्रस्तावना
( ४ ) विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान पं० आशाधरजीने अनगारधर्मामृत और सागरधर्मामृतकी स्वोपज्ञटीका ( भव्यकुमुदचंद्रिका) में स्वामी समन्तभद्रके पूरे अथवा संक्षिप्त (स्वामी) नामके साथ रत्नकरंडके कितने ही पद्योंका-अर्थात् उन पदोंका जो इस ग्रन्थ के प्रथम अध्ययनमें नं ५, २२, २३, २४, ३० पर; तृतीय अध्ययनमं नं० १६, २०, ४४ पर; छठे अध्ययनमें नं०७ पर श्री. . वें अध्ययनमें नं० २, ६ पर दर्ज हैं-उल्लेख किया है । और कुछ पद्यांको-जो प्रथम अध्ययनमें नं० १४, २१, २२, ४१ पर पाये जाते हैं---बिना नामके भी उद्धत किया है। इन सब पद्योंका उल्लेख उन्होंने प्रमागरूपसे--अपने विषयको पुष्ट करने के अर्थ अथवा स्वामी समन्तभद्रका मतविशेष प्रदर्शित करने के लिये ही किया है । अनगारधर्मामृतके १६वें पद्यकी टीका में, अापका निर्णय करते हुए, आपने 'आप्तानोत्सन्नदोषेण' इत्यादि पदा नं ५ को आगमका वचन लिखा है और उस आगमका कर्ता म्वामिसमन्तभद्रको बतलाया है । यथा___"वद्यते निश्चीयते । कोसो ? स आप्तोत्तमः। ...कस्मात् ? आगमात्- "आप्तेनोल्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवत् ॥” इत्यादिकान् । किं विशिष्टात् ? शिष्टानुशिष्टात् । शिष्टा आप्तोपदेशसंपादितशिक्षाविशेषाः स्वामिसमन्तभद्रादयः तैरनुशिष्टाद्गुरुपर्वक्रमेणोपदिष्टात् ।'
इस उल्लेखसे यह बात भी स्पष्ट है कि विद्वद्वर आशाधरजी ने रत्नकरंडक नामके उपासकाध्ययनको 'आगमग्रंथ' प्रतिपादन किया है। ___ एक स्थान पर आपने मूढताओंका निर्णय करते हुए, 'कथमन्यथेदं स्वामिसूक्तमुपद्येत' इस वाक्यके साथ रत्नकरंडका 'भयाशास्नेहलोभाच्च' इत्यादि पद्य नं० ३० उद्धत किया है और उसके बाद यह नतीजा निकाला है कि इस स्वामिसूक्तके अनुसार