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मेरु मंदर पुराण समवसरण रचना होय मीर भगवान का विहार होय वहां ग्रंधों को दीखने लग जाय, बहरे श्रवण करने लग जाय, लंगड़े चलने लग बाय, नूगे बोलने लग जांय । इस प्रकार वीतराग की अद्भुत महिमा है ।
उस समवसरण धूलि शालादिक रत्नमयी कोट मानस्तम्भ बावड़ी जल को खातिका, पुष्पवाड़ी फिर रत्नमय कोट दरवाजे, नाटयशाला, उपवन, वेदी-भूमि, फिर कोट, फिर कल्पवृक्षनि का जिसमें देवच्छद नाम का एक योजन का मंडप सब तरफ बारह सभा अंतरिक्ष विराजमान भगवान प्ररहंत है। जिनकी अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुखमयी, अंतरंग विभूति की महिमा कहने के लिये चार ज्ञान का वारक गणधर भी समर्थ नहीं हैं। अन्य कौन कह सकता है ? उस समवसरण की विभूनि ही वचन के अगोचर है । तीसरी कटनी पर गंध कुटी है जहां चौसठ चँवर बतीस युगल देवन के मुकुट; कुडल हार, कड़ा, भुजबंधादिक, सर्व प्राभरण पहने ढ़ाल रहे हैं। तीन छत्र अद्भुत कांति के धारक जिनकी कान्ति से सूर्य चन्द्रमा भी मंद ज्योति भासे हैं और जिनकी देह का प्रभा मंडल का चक्र बंध रहा । जिसके कारण उस समवसरण में रात दिन का कोई भेद भाव नहीं है । सदैव दिन ही प्रवर्ते हैं । और वहां की सुगंध ऐसी है जैसी सुगन्ध त्रैलोक्य में भी नहीं है । ऐसी गंध कुटी के ऊपर देवारा रचित अशोक वृक्ष को देखते ही समस्त लोकनि का शोक नष्ट हो जाता है। और प्राकाश ते कल्प वृक्षों की पुष्प वर्षा होती है तथा साढे बारह करोड जाति के वादित्रों की ऐसी मधुरी ध्वनि होती है जिनके सुनने मात्र मे क्षुधा तृषा प्रादि सर्व रोग, बेदना नष्ट हो जाती है मौर रत्न जड़ित सिंहासन सूर्य की कांति को जीतता है।
जिनेन्द्र भगवान की दिव्य ध्वनि की अद्भुत महिमा है। वह ध्वनि त्रैलोक्य के जीवों की परम उपकार करने वाली और मोह अंधकार का नाश करने वाली है तथा समस्त जीव अपनी-अपनी भाषा में उन शब्दों का प्रर्य ग्रहण करें हैं। दिव्य ध्वनि की महिमा गणधर तथा इन्द्र भी अपने वचनों के द्वारा कहने को समर्थ नहीं हैं। उस समवसरण में सिह और हाथी, व्याघ्र और गाय, बिल्ली और हंस इत्यादिक सर्व जाति विरोधी मोव वैर बुद्धि छोड़ कर परस्पर मित्रता करने लगे हैं। बोतरागता की अद्भुत महिमा को असंख्यात देव जय जयकार करें हैं और देवनिकर रचित काश. झारी, दर्पण. ध्वजा. ढोल छत्र, चवंर, बीजना ये अटूट प्रचेनने द्रव्य भी लोक में मंगलता को प्राप्त होते हैं। भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् दस अतिशय प्रकट होते हैं । चारों ओर सौ-मी योजन सुभिक्षिता और प्राकाश गमन, भूमि का म्पर्शन तथा किसी भी प्राणी का वध नहीं होता और भोजन तथा उपसर्ग का प्रभाव चतर्मख दीखे, समस्त विद्या का ईश्वरना. छाया रहितपना तथा नेत्रों का टिमकारना व केश व नख नहीं बढ़ते हैं । इस प्रकार दस अतिशय घातिया कर्मों के नाश करने से स्वयं प्रकट हो जाते
तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से चौदह अतिशय देवों द्वारा होते हैं । प्रर्ध मागधी भाषा, सर्व जनों में मैत्री भाव, समस्त ऋतु के फल फूल, पत्रादिक सहित वृक्ष होय । पृथ्वी दर्पण समान रत्नमयी, तृण-कंटक-रजरहित, शीतल मंद. सुगन्ध, हवा चले। सब प्राणियों को मानन्द प्रकट हो, अनुकूल पवन सुगन्ध जल की वृष्टि होती है । भगवान जहां चरण धरते हैं
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