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मेरु मंदर पुराण
[ २१५ मर्थ-पूर्वभव में वरदत्त मुनिराज के उपदेश के प्रभाव से मैंने (सिंहचंद्र) सुगति प्राप्ति के अनन्तर आपके (आर्यिका रामदत्ता) गर्भ से जन्म लिया। मेरा पूर्वभव भद्रदत्त बरिणक नाम का जीव था। मेरे जन्म होने के बाद मापने संस्कार सहित मेरा नाम सिंहचन्द्र रखा । मौर पूर्वभव में वारुणी नाम की जो ब्राह्मण पुत्री थी उसके जीव ने तुम्हारे गर्भ में पाकर पूर्णचन्द्र नाम का पुत्र होकर जन्म लिया ।।४६०।।
प्रादलावन् कनिगां। कादल यायिनायनी॥ पोदुला मलग लानु ।
कोदिला गुरगत्त नाने ॥४६१॥ अर्थ-इस कारण पूर्वभव के संस्कार से तुम्हारे प्रति हमारा प्रेम अधिक हो गया है। इस प्रकार इसी उपदेश से उनको सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी। क्योंकि पूर्वजन्म के संस्कार से सारी बातें प्राप्त होती हैं। मोह कंदमूल के समान है । बार २ इसी प्रेम के कारण किसी भी पर्याय में पहुंचे, एक दूसरे का संबंध होकर प्रेम का कारण बन ही जाता है। इस कारण है प्रायिका माता ! पूर्व जन्म के मोह का ही संस्कार है। इसलिये पूर्णचन्द्र को अवश्य सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी॥४६॥
विनयेनु कुयव नम्मै दुरु वियट्रल कंडाय । अनगना मुरुवम् तन्नै पेन्नुरु वाकियेंगे । मनविय मगळु माकि मगळये मैंद नाकि ।
निनविनाल मुडित्त निड्रार् नीदियार् कडक्क वल्लार ।४६२। अर्थ-इस नाम कर्म से जिस प्रकार कुभकार मिट्टी के बरतन को अपनी भावनाओं के अनुसार छोटा बडा बनाता है; उसी प्रकार मनुष्य शुभाशुभ भावों के अनुसार अपनी पर्याय धारण कर लेता है। पूर्व जन्म के संस्कार से पुत्र, माता, भगिनी, भाई, बंधु, पिता, पिता से पुत्र, पुत्र से पिता, माता से पुत्री, पुत्री से माता इस प्रकार शुभाशुभ अर्थात् मोह कर्म के वश जीव अनेक विचित्र पर्यायों को धारण कर लेता है। इसी तरह संसार में जितने प्राणी हैं वे सब पूर्व जन्म के पाप पुण्य के अनुसार फल वाले होते हैं ।।४६२॥
भद्दिर बाहु वेन्नू परममा मुनिवन् पारि । लुत्तमन् पादं सेंदु इन पिदा विड़, मुनिवनागी । इत्तळ मेनिड़ निनक्कु वंदिदत्तै योदि।
सित्त मै मोळिकन् मूड सेरिवित्त कुरव नानान् ।४६३। अर्थ- इस संसार में उत्तम गुण को धारण किये ऐसे भद्रबाहु मुनि के चरण में शरण गया है ऐसा तुम्हारा पिता है, वह मुनि दीक्षा लेकर निर्दोष चारित्र को प्राप्त कर यहां
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