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मेरु मंदर पुराण
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श्रोर निर्दोषव्रत तथा चारित्र को पालने वाले मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका प्रादि सब बैठते थे । देखनेवाले भव्य जीवों को ऐसा दीखता था जैसे चंद्रमा के चारों ओर नक्षत्र प्रकाशित होते हैं । उसी प्रकार उन वज्रदन्त मुनिराज के चारों ओर क्षुल्लक, क्षुल्लिका, धावक, श्राविका प्रादि शोभायमान होते थे ।।८२० ॥
पिरवि माकडल पेयकुं माट्रला । लिरंव नन्नव नेंदु कोळ्ग यान् ।। मरुविन मादवन् वैय्य मूंड्रिनु । मुरवि निड्रया रोद वंड्रि नान् ॥८२१॥
अर्थ - संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये सम्यक्त्व के बल से भगवान के समान सम्यक् चारित्र को प्राप्त किये हुए मुनि वज्रदन्त इस लोक में जीव के जन्म और मरण के संबंध में प्रतिपादन करने वाले त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति नाम के ग्रंथ का स्वाध्याय करते हुए अपने संघ के त्यागियों को उपदेश देते थे || ३२१ ॥
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नोंड्रि रंडोरु मूंड्र नालें दाय ।
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निड्र बोरिने रिइन् वाळुइ ॥
ड्र नीर मर निल नेरुप्पु कार् ।
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ट्रॅड्रि काय मंददि वाळुमे ।। ८२२||
नंदु शिपि शकांदि नावन
कुंद रेंबु कोपादि मूंडून ॥
दु तुंबडावि नाल वंन् ।
तिदियं पशु नरर् नरगर् देवराम् ||८२३॥
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अर्थ - उस संघ के त्यागियों ने प्रश्न किया कि शास्त्र में प्रतिपादन किया हुआ विषय कौनसा है तो आचार्य कहते हैं कि संसारी जीवों के मुख्य दो भेद हैं। एक स्थावर और दूसरे त्रस एकेंद्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेंद्रिय जीव इनकी मार्गरणा से अर्थात् स्थावर पांच हैं, और त्रस चार हैं। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायु-. कायिक और वनस्पतिकायिक यह तो पांच स्थाबर हैं और दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेंद्रिय ये चार त्रस हैं। लट, शंख, सोंप, कीटक आदि दो इन्द्रिय जीव हैं । चिऊंटी खटमल बिच्छु प्रादि तेइन्द्रिय जोव हैं । भ्रमर, मक्खी, मच्छर, पतगा श्रादि चौइन्द्रिय जीव हैं और पशु, पक्षी, मनुष्य, नारकी, देव श्रादि पंचेंन्द्रिय जीव हैं ||२२||२३||
उळुवल कल्लुदलर्डत्त लोडुकाय् । तळगळावि मण्णु इर्गळ् मायं दिजु ।
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