Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 517
________________ ४६. ] मेरु मंबर पुराण इमैयमा लिमयमुं निडव नीलियुं । शिमय नरिक्कियुम शिकरि यामले ॥ तमैनडु वुडय वेळ नाडि बद्रिनुट् । समय मा रुडय वाम् भरत रेवतं ॥१२२६॥ अर्थ-हिमवन पर्वत,महाहिमवन पर्वत,निषध पर्वत,नील पर्वत,रुक्मि पर्वत शिखरी पर्वत ऐसे छह कुलाचलों के बीच में भरतादि सात क्षेत्र हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं । मेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र है और उत्तर दिशा में ऐरावत क्षेत्र है । ये दोनों क्षेत्र अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल का परिवर्तन वाले हैं ॥१२२६॥ नन्मयुं नन्मयुं नन्मयायटुं। नन्मइर् द्रीमयुं तोमै नन्मयुं ॥ तिनिय तीमयुं तीमै तीमयन् । टेनिय कालमेट्रिळिवे याकुमे ॥१२३०॥ अर्थ-ये छह प्रकार के काल निम्न प्रकार से है: सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा, दुषमा दुषमा (इसी को अति दुषमा भी कहते हैं ) इस प्रकार अवसर्पिणी के छह भेद हैं। इसी को उलटा पढने से उत्सपिणी के छह भेद हो जाते हैं। ये दोनों सर्पिणी के समान घटते बढते रहते हैं ॥१२३०।। प्रोरु मुळ पविन यांडुवि युंबिमेल । वरुशिल यारईरं पल्लमंड दि ॥ पेरुगिय परिशिनार् पिन सुरुंगी वन् । तोर मुळ पविन यांडामुर् कर्षमाम् ॥१२३१॥ अर्थ-उत्सर्पिणी काल के मनुष्यों की ऊंचाई प्रथम काल में एक हाथ उत्सेध तथा पन्द्रह वर्ष की प्रायु होती है। पुनः बढते २ छठे काल में छह हजार धनुष की ऊंचाई वाले तथा तीन पल्य की प्रायु वाले उत्तम भोगभूमि में मनुष्य होते हैं। तदनंतर उत्सर्पिणी काल में जैसे वृद्धि होती जातो है उसी प्रकार अवसर्पिणी काल में कम होते २ अंत में एक हाथ उत्सेधक पंद्रह वर्ष की प्रायु वाले हो जाते हैं। दोनों कालों को मिलाकर एक कल्प काल होता है ।।१२३१॥ माळिगळ कोडा कोडिय इरिनिल । मालु मंदिरंडोड़ा नालु कालंगळिर ॥ द्राबि लांडुनातिरायिरं। मेलवर विविकप्पट्टवे ॥१२३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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