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मेरा मंदर पुराण
नडुव नेन् पुगे कोळुपाय नंदिईचिरगोट् तीट्रिर् । कुडे मलरं विरुंद पोल डिरंडरं तीवोडोत्तु ॥ कडेला वरिवु काक्षि युडैय वर् कळुवि निड्र । fasमदु वलगत्तुच्चि येतरं तिरत वामे ॥१३१६॥
अर्थ - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि को प्राप्त हुए सिद्धपरमेष्ठी के सिद्धक्षेत्र तीन लोक के शिखर के ऊपर जो सिद्धशिला है, वह आठ योजन प्रमाण मोटाई में छत्राकार सिद्धशिला है । उसके उपर सिद्धक्षेत्र में सिद्ध भगवान विराजमान हैं। वह सिद्धशिला गोल पैंतालीस लाख योजन चौडी है । ऐसे सिद्ध भगवान भव्य जीवों के द्वारा स्तुति करने योग्य हैं ।। १३१६ ||
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मतिश्रुतमवदि मांड मनपच्चं केवलमाम् ।
विदियमां पारणं वेंडिन् विकर्पंग ळियावु मांगुम् ॥
मदिसुदं परोक मागुं मटू पञ्चक्क मागुं ।
विदिवै विगुलन् तूलं सकल निच्चयमु मामे ॥१३२० ॥
अर्थ – सम्यक्ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान इस प्रकार ज्ञान पांच प्रकार के हैं। इन एक एक का विस्तार से विवेचन करना मेरे द्वारा अशक्य है । ग्रथ विस्तार के भय से मैंने यहां विवेचन नहीं किया है, अन्य ग्रंथ से जान लेवें । क्योंकि ये पांचों ज्ञान अनंत विकल्पों से युक्त हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान परोक्ष हैं । अवधिज्ञान एक देश प्रत्यक्ष है तथा मन:पर्ययज्ञान स्थूल व सूक्ष्म है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । १३.२० ।।
मदिइनुं करुत्तु कन् कूडिरंड माम् विशेडं पत्ताम् । fafeng कन् कूडांगु विचारने नीकं तेदूं ॥
मति सुरति शेन्ना सिंदे मद्रिवै परोक्क मांगु । सुदमदन् मुन्धु सेल्लु मदियुनर् परोक्क मामे ।।१३२१ ।।
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अर्थ - मतिज्ञान के प्रर्थावग्रह व व्यंजनावग्रह दो भेद हैं । यह विशेष रूप से दस प्रकार का होता है । स्पर्शन, रसना, घ्रारण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये छह भेद हैं । इन से एक एक उत्पन्न होने वाले छह अर्थावग्रह हैं । चक्षु और मन के व्यञ्जनावग्रह नहीं हैं । अर्थात् चार भेद हैं । ये दोनों अर्थावग्रह के छह और व्यंजनावग्रह के चार इस प्रकार दोनों मिलाकर दस भेद हैं । अर्थावग्रह के ऊपर ईहा, आवाय, धारणा ये तीन हैं। स्पर्शनादि इन्द्रियों के भेद भिन्न भिन्न प्रकार से होते हैं । ये सभी मिलकर अठाईस होते हैं । यह बहु, बहुविध, एक एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसृत, अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव ये बारह पदार्थ हैं । इनको गुणा करने से तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। यह मति, स्मृति, संज्ञा, चिता, अभिनिबोध इन पर्यायों को धारण करते हुए परोक्ष है, मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान परोक्ष है ।। १३२१ ।।
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