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मेरु मंदर पुराण
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भगवान होने वाले चरम शरीर को धारण कर मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेते हैं ।। १३३८ ॥
प्रारत्तेळ विरुप्पि नालु मांडू नरकाक्षि यालुं । वेरुत्तेळ मनत्तिनालु मिक्क नर् पोरइ नालुं ॥ शिरपुडे शमत्तिनालुं देवर शाकु भूमि । पिरप्पिने मैकु मक्कळा युगं पिनिक्क् मिक्के ।। १३३६ ।। नेरिs वै पेरदारंद निलत्तुळ विलगुंमावार् ।
श्ररिवंड्र मुदल् विलंगुम् तेळि विला मरिणद रागु ॥ मरुविलां तेळिविनाळे वायु तेयुक्कळ शेंडू ।
सेर बोरि विलंगिल शिरिय दोर् करुरणे यालुं । १३४०।
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अर्थ - इस मार्ग को पालन न करते हुए जीवों पर अल्पदया भाव रखने वाले इस कर्मभूमि में तिर्यंच प्रायु का श्रास्रव कर लेते हैं । एकेंद्रिय प्रादि चतुरिंद्रिय पर्यंत पशु पर्याय तक तीव्र मोह से नीच मनुष्य गति का बंध होता है । कदाचित् सैनी, असैनी पंचेंद्रिय पशुगति का बंध होता है ।। १३३६।१३४० ।।
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विरद मिल् काक्षि तीमै विरविय वोळुक् मार्व । मरुविय सरितकुत्ति समितै पन्निरंडु सिदे || रुममुं तवसुं देवारायुगं तन्नै याकुं ।
विरत शीलंगळ मिच्चं विरविन दालु मामे ॥। १३४१॥
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अर्थ - प्रसंयत सम्यकदृष्टि जीव हेयोपादेय रहित अज्ञान रूप आचरण को पालन करे और इन्द्रिय भोगों संबंधी विषयों की इच्चा करे तो कुगति को प्राप्त होता है । तीन गुप्ति, पांच समिति द्वादश भावना, दश प्रकार के धर्मों को पालन करने से उत्तम, मध्यम, जघन्य देवायु का कर्मबंध होता है । सम्यक्त्व को त्याग कर मिथ्या चारित्र को पालन करने से उस परिणाम के अनुसार कर्म का बंध होता है । १३४१ ।।
नर्गुणं पोरामै तीय कदंगळे नविनल्ल ।
सोकं युरळ दल तूय वोळ क्किन् में तुयर मंदल ॥ कुद्रतल मनो वाकायं कोटं पोल्लाच्चिरिपुं । मट्रिपळित्तल नामं पिनित्तलु केटु वामे ।। १३४२ ।।
अर्थ- सम्यक्त्व आदि गुरणों को छोडकर काम भाग आदि शास्त्रों को पढना, दूसरे को दुश्चारित्र कथा कहना, धर्म की निंदा करना, अपने सत्तारूपी चारित्र का स्थागना, दुष्टा
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