Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 553
________________ ४९६ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-जिस प्रकार एक चंदन वृक्ष को काटने वाले को वह चंदन वृक्ष सुगंध ही देता है या छाया देता है उसही प्रकार अपने को दुख देने वाले को भी सुख देने वाले धर्मोपदेश देकर उनकी तृप्ति कर देते हैं और समता भाव सदैव धारण करते हैं ।।१३५७।। वरत्तुनु कुळि शमरत्ति नीळलु। मरैपिनुं शीतमां संदम् पोलवू ॥ निरत्तु निडिनाद शैद वर्षा मिवमा । मुरै कनिन् रत्तम पोरै योडोंबिनार ॥१३५८।। अर्थ-गर्व रहित उत्तम मार्दव से युक्त सम्पूर्ण जीवों को समताभाव से देखकर उन भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर आर्जव गुण से युक्त थे। जिस प्रकार स्फटिक मरिण भीतर बाहर एक सा रहती है उसी प्रकार बाह्य-अभ्यंतर से ये दोनों सम्यक् चारित्र से युक्त थे। ॥१३५८।। मार्तवत्ताल वळ दारुयिर्कलां। पार्तरं पगंदुळं पंजिन् मेल्लिय ।। रचिवत्तगं पुंर मारिण विळकि तोत् । तूर्तम योरुवगै योळगु नीररे ॥१३५६।। अर्थ-इष्ट अनिष्ट वस्तु में रागद्वेष रहित रहने वाले मदर प्रौर मेरू उत्तम सत्य धर्म को पालन करने वाले होकर पंचेंद्रिय विषयों से अत्यंत अलिप्त थे ।।१३५६।। प्रविमुं सेटमु मयक्क मिन्मया। लारुयिर् कुरुदि पेल्लाद सोल्लिला ।। रोर् विडत्तर तोरुविय पोलत्तिन् मीटुळं । सोविड तुनशेला तूयइिनार् ॥१३६०॥ अर्थ-स्पर्शन , रसना, घ्राण , चक्षु, श्रोत्र पंचेंद्रिय तथा मन अर्थात् पृथ्वी, अप , तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीव की रक्षा करना ये छह प्रकार के प्राणि संयम हैं। द्वादश तप को निरतिचार पूर्वक पालन करते हुए निरतिचारी तथा अकिंचन्य धर्म को पालन करने वाले थे। इसके अतिरिक्त भव्य जीवों को तत्वों का रूपदेश करने वाले उत्तम त्याग धर्म वाले थे ।।१३६॥ अरुवगै पोरिवळी पचि नींगियुं । मरवग काय येरुळि नोंबियुं ॥ शेरित वं पनिरंडि शेलापिने । तुरुवु मैत्वागमुं तुन्नि नागळे ॥१३६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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