Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 560
________________ मेरु मंदर पुराण [ ५०३ वरणीय ऐसे पांच प्रकृति व दानांतराय, लाभांतराय, भोगान्तराय, उपभोगांतराय, वीर्यान्तराय यह पांचों मिलकर इस प्रकार १४ प्रकृतियों को नाश किया ॥१३८२॥ मालवा इरुळे नीकि वैयत्त तुई लेप्पुं । कालै वायरुक्कं पोल घातिगनारणगु नींग ।। मेलिला मुरंगु नानमै विळित्तुल गणत्तुम् कान । मालिला मनत्तु चिदै यरुक्कन तुवित्त बेंद्रे ॥१३८३॥ अर्थ-जिस प्रकार रात्रि का अंधकार प्रातःकाल सूर्य का प्रकाश होने पर दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अंतराय इन चारों का नाश होते ही अनंपत चतुष्टय प्रकट होते ही केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ ।५३८२।। बुळ्ळेळू तीई नाल वेंदोळि पेट्र विरग पोल । वेळ्ळयध्यानं तन्नाल वेदेरि युवळमेनि ॥ पळ्ळि कोंडोडुवं मूत्तल पशित्त नोय वेळकै इंडि। पिळ्ळे यादित्तन पोल पिरप्पिर डूतिरुंदार ॥१३८४॥ अर्थ -तदनंतर ये दोनों केवली शुक्लध्यान के बल से आत्म प्रकाश को प्राप्त कर संसार का कारण जन्म, मरण, जरा और व्याधि, शोक, भय, वद्धावस्था, भूख, प्यास, पसीना, निद्रा आदि १८ दोषों को नाश कर वीतराग शुद्धोययोगी हो गये ॥१३८४॥ भयं पगै पनित्त लावं सेट्रमे कचि शोकं । वियंदिडल वेगुळि शोगं वेरर्तिडल विलंबरेवदं । मयगुदल तेळिदल् सिदै वरुंदुदल् कळित्तल मायम् । ईयं बरं तिरत्त विन्न यावयु मेरिंदुरुंदार ॥१३८५॥ अर्थ-आत्मा के विरोध करने वाले राग, द्वेष, शोक, पाश्चर्य, सुख, दुःख, संतोष मादि अठारह दोषों को नाश किया। श्री भगवान समंतभद्राचार्य ने भी इसी प्रकार कहा है: स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥ (देवागम) हे भगवन! पाप ही पूज्य हो, युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन होने से आपके वचन ही अविरुद्ध हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम प्रादि प्रमाणों से बाधा नहीं पाती है । ॥१३८५॥ प्राइडे यमरर्तङ वन मुडियोडा सनंतुळंग । पाय नल्लवदि येन्नु परुदि यार् कंडवेल्लां ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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