Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 566
________________ मेरुमंदर पुराण [ ५० प्रर्थ - क्रोध या मायाचार से दुखी हुए सत्यघोष की कथा इस पुराण में वर्णन की गई है । यह पुराण केवल सत्यघोष को लेकर ही है । क्योंकि यह पर द्रव्य में प्रासक्त लोभ तथा मायाचार के द्वारा अनेक बार नरकों में जाकर कष्ट व दुख भोगता रहा । इसका विवेचन यहां तक किया गया। इस पुराण में पापी पुरुष तथा पुण्यात्मा पुरुषों का विवेचन किया गया है । सत्यघोष को पाप कर्म के उदय से दुख हो दुख भोगना पडा, और इन दोनों पुण्यवान पुरुषों को पुण्यानुबनी कर्म के कारण मुक्ति मिली। इस जीव को सुख और शांति का देने वाला जैनधर्म के अतिरिक्त कोई सहायक नहीं है। ऐसा समझकर भव्य जीवों को इस लक्ष्मो संपत्ति को क्षणिक समझकर इसका सदुपयोग सत्कार्यों में करके जैन धर्म को सा अङ्गीकार करना चाहिये, और अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिये ।।१४०३ ।। रमल दुरुदि शैवार् कडा मिले । मरमला दिडर्शय बरुवदु मिले || नेरि ईवं इरंडयुं निदु नित्तमं । कुरुगु मी नरनेरि कुटू नींगवे ।। १४०४ ।। अर्थ - प्रात्मा को सुख देने वाला जैन धर्म ही है । दूसरा कोई नहीं । म्रात्मा को दुख देने वाला मिथ्यात्व के समान और कोई पाप नहीं है । इसलिए भव्य जीव जैनधर्म का भली भांति मनन करके सदैव पाप को उत्पन्न करने वाले रागद्वेषादि को त्याग करके सच्ची आत्मा को सुख ' देने वाला सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित निश्चय व व्यवहार धर्म की आराधना करके स्वानुभूति के रसिक बनें ।।१८०४ ॥ प्राकुच देदेनि लरतं याकुम । पोकुव देदे निल बेगुळि पोकुग ॥ " Jain Education International मोकुवदेदेनिल, ज्ञान नोकुग । काकुवदे देनिल, विरदम् काकवे ।। १४०५ ॥ प्रथं - प्रत्येक जीव को ग्रहण करने योग्य क्या है और छोडने योग्य क्या है - इसका विचार करके यदि देखा जाय तो सर्व प्रथम मिथ्यात्व क्रोधादि ही संसार के मूल कारण हैं । ऐसा समझ कर उनको त्याग कर सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र यह रत्नत्रय ही ग्रहण करने योग्य हैं, और यही मोक्ष के मार्ग होने से आत्म स्वरूप में धारण करने योग्य हैं। जो भव्य प्राणी इस पवित्र चरित्र - पुराण को मन, वचन, काय से भक्ति पूर्वक पढता है, मनन करता है उस भव्य जोव को इस ज्ञान को प्राराधना से शीघ्र हो स्वर्ग मोक्ष फल की प्राप्ति होती है ।।१८०५ ।। इति श्री वामनमुनि रचित मेरू मंदर पुराण में मेरू मंदर का मोक्षगमन तथा उनके पूर्वभव का वर्णन करने वाला तेरहवां अधिकार समाप्त हुआ और ग्रंथ पूर्ण हुआ । ॥ इति जनं जयतु शासनम् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 564 565 566 567 568