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मेरु मंदर पुराण दुरैत विप्पिरप्पुपपादमूर्चने। करुप्प मुमा मुम्मद्दे वर नारगर ॥ कुरैत्त बट पपादं जरायुजं ।
करुप्पु मानवगळ काव दागुमे ॥१३५०॥ अर्थ-पीछे कहा हा जन्म-उपपाद, गर्भ, सम्मूर्छन ऐसे तीन प्रकार का होता है। इन तीनों में से उपपाद जन्म देव नारको को होता है। और मनुष्यों को जरायुगर्भ तथा सम्मुर्छन भी होता है । शेष सब तिर्यंचों के गर्भ सम्मूर्छन होता है ।।१३५०।।
नम्मि नुनियवर नाल्खुि कारुराळ् । सम्मुच्च पिरवियर् विलंगि लैंबोरि ॥ विम्मिनार सम्मुच्चम् करुपत्तावदां । तम्मिलु शेरा युगं मंडम् पोदमाम् ॥१३५१॥
अर्थ-पंचेंद्रिय लब्धि पर्याप्त मनुष्य एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय सम्मूर्छन होकर जन्म लेते हैं। तिर्यंच गति में कहीं पंचेंद्रिय जीव होकर जन्मते हैं , कहीं सम्मूर्छन हुप्रा जन्म लेता है और कहीं गर्भ जन्म में भी जन्म लेते हैं अर्थात् तिर्यंच जीव जरायु, अंडज और पोतज में भी जन्म लेते हैं ॥१:५१।।
यावयुं तोर्शवि युडय शनियां । तावलं तुळशवि शनिय शनियां ॥ मेवुरुं तिरुवरं मेवुगं सन्निग ।
कोविला पिरप्पि वदि योनि योबदाम् ॥१३५२॥ अर्थ-सभी जीवों की उत्पत्ति का स्थान (योनि) नौ प्रकार की है। कणेंद्रिय मन को प्राप्त हुए संज्ञी जीव को सैनी जीव कहते हैं । इसमें कहीं मन रहित असैनी सर्प प्रादि होते हैं ।।१३५२।।
विनै युयिर् तत्तमिल विडुदल वीडदु । तनगुण नोगंलु दवियं शूनियं ॥ मुनै यवरुड नुरल मुवल्व नंड्र वा।
ननग नाय गुरणंगळ मनंद मागुमे ॥१३५३।। अर्थ-जीव और कर्म अनादि काल से परस्पर में रागपरिणति मिलकर यह प्रात्मा पुद्गल के निमित्त से संसार में परिभ्रमण करते पा रही हैं। इस प्रात्मा का अपने शुद्ध स्वरूप, स्वपर ज्ञान से भिन्न २ करके शुद्ध चैतन्य बल से पर को त्याग करके अपने स्वरूप में स्थित
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