Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 556
________________ मेरु मंदर पुराण [ ४९९ से युक्त, आत्मा को दुख देने वाले कर्मों की पर्याय को शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा दहन करते हुए , स्वर्ण में मिश्रित कालिमा कीट को तपाकर दूर करके सोने को शुद्ध करते है, उसी प्रकार प्रात्मा को शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा मुष में प्रात्मरूपी स्वर्ण को रख कर कर्म रूपी कीट को भस्म कर आत्म-शुद्धि करने वाले थे ।।१३६७५१३६८।। उडंबुई रुरवा नेरेंड डंबे विटुडे पार्ताम् । कतुपर विनंगळवा ळुरुक्कोडु नेरुप्पुइर् कट ।। केडम परियाय मव्वाकिट्ट मामेंड बदवे। कडंतम् वडिवैकळाकळंड पोच पोलक्कं डाल ॥१३६६॥ अर्थ-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के प्रावरणों को मनःपर्यय ज्ञानावरणी, केवल ज्ञानावरणी कर्मों के प्रावरण को नाश करते हुए, अनंत गुणों से युक्त प्रात्म-स्वरूप की वृद्धि करते हुए अनादि काल से प्रात्मा के साथ चिपक कर पाए हुए चक्षु, अचक्षु , आदि कर्मों को दर्शनावरणीय आदि पाठ कर्मों को नाश करके अनंत दर्शन से युक्त प्रात्मगुण को प्राप्त कर सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के बल से सदैव ज्ञान के बल से प्रात्मस्वरूप की सतना भावना भाने वाले थे॥१३६॥ मतिश्रुतप्रवधि यामा वरणत्ति लरिवु म । विदियर केडबंडागि येनंद माय विरियं काक्षि ॥ पोदुविना लरिविन मुंबु पुलत्तं कोनं डनेक मायतन् । विवियर के डवंडागि विरियुमा नुन्निनारे ॥१३७०॥ अर्थ-अतींद्रिय युक्त शुद्ध चैतन्य प्रात्मद्रव्य नाम के प्रात्मसुख को व इन्द्रिय सुख को उत्पन्न करने वाले मोह सुख को पांच प्रकार के ज्ञानावरणाय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय आदि पांच कर्मों को नाश करने से हमको प्रत्यंत सुख देने वाले प्रात्मसुख को प्राप्ति होगी॥१३७०॥ सुगदुख मोग मागि सुळलुं चेतवे सुगत्तै । तगै वै शं येतरायं तम्मोडु मोगनींग ॥ मुगै विट्ट ना, पोल मुळंदु वंदेळंद नंद । सुगमट्र डागु मेंड, तुळक्कर निनंदु निड्रार् ॥१३७१॥ अर्थ-वीर्यान्तराय कर्म आत्मा से अलग होते ही उसी समय तीन लोक को एक ही समय में जानने वाले, अनन्तवीर्य नाम का गुण प्राप्त होगा। इस प्रकार भावना भाते थे। ॥१३७१।। घोयंतराय नीगं विकलत्ति.नींगि वीरम् । कार्य कडेलादु कनत्तिले मुडित्तळंदु ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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