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मेक मंदर पुराण
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नेरि मुत्ति किल्ले नित्तं मुत्तने जीवन म्।
परिविन नंड्रे येंड्र, मळत्तलाम् पिळत्तलीदि ॥१३२८।। मर्थ-केवल दर्शन से ही मोक्ष होना कहना, केवल ज्ञान ही तथा चारित्र से ही मोक्ष होना-ऐसा कहना, भक्ति से मोक्ष होना कहना, इसके अतिरिक्त मोक्ष मार्ग के लिये मौर कोई मार्ग ही नहीं है ऐसा कहना तथा जीव हमेशा नित्य ही है-ऐसा कहना, इस प्रकार विवेचन करना मिथ्यामार्ग का पोषक है ॥१३२८॥
इरैव मट्रेन कोलेदु विनै मण्नर मिगुदर् केंड्रम् । कर कळलरसर् केटा ररुतव हरैक लुद्र ॥ नेरियिना लेटुंतत्त निमित्तत्तै निरैय पेट ।
सेरिय मिक्कल्ल दीन मामदु शप्पक्केळ मिन् ॥१३२६॥ अर्थ-मेरू मंदर ने प्रश्न किया कि कर्मरूपी शत्रु के द्वारा प्रात्म-बंधन के लिए कारण कौनसा है ? तो भगवान ने बतलाया कि ज्ञानावरणादि पाठ कर्म क्रम से आने वाले प्रशुद्ध चेतना परिणामों से कर्म पाकर आत्मा में प्रास्रव करते हैं। प्रास्रव कौन २ से हैं, यह बतलाते हैं ।।१३२६।।
परमनोल् पळित्तल मायत डियुरल् पिळक वोदल् । कुरवर् मारादल सुरेदगं कोंडुळि करत्तत्तट्रिनन् । मरुतु तुवर्ग नागिन् ज्ञान माचर्यमुट।
पेरुगिला वरण ज्ञान काक्षि यै पिनिक्कु मिक्के ॥१३३०॥ अर्थ-अठारह दोष रहित ऐसे अहंत परमेश्वर के मुखारविंद से निकली हुई दिव्यध्वनि के शब्दों को गरगधर देव उस दिव्यध्वनि को अंशरूप में गूंथ कर उसको सूत्रबद्ध करते हैं । उस सूत्रबद्ध को अवर्णवाद अर्थात् उस सूत्र की निंदा करना, उसका नाश करना, उसके अन्दर विघ्न उपस्थित करना, उस सूत्र के विरुद्ध अपने मनोकल्पित रचना करके कहना, प्राचार्य, उपाध्याय सर्वसाधु की निंदा करना, भष्य जीवों द्वारा प्राग मानुसार उपदेश को छुपाना, झूठे शास्त्रों का प्रचार करना, क्रोध, मान, माया, लोभ से सम्यक्त्व रहित होना, यह सभी ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के प्रास्रव के कारण हैं ॥१३३०।।
तन्मुद लुयिरै कोरल वरत्तुदल पड़ेगळे दि । इन्नुयिर नडुंग चेर लेरि इड लुरुप्परुत्तर ॥ विन्मुद ळीद लुळेळ वरुंद वेन् तुयर दिल् ।
इन्न इडर ईनु मसाद वेदत्त वोटुम् ॥१३३१॥ अर्थ-स्वपर जीवों की हिंसा तथा दूसरे जीवों पर उपसर्ग करना, जीवों की शिकार करना, दूसरे के घर को प्राग लगाना, गंज जलाना, आयुध दूसरों को देना, क्रूर कृत्य
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