Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 544
________________ मेरु मंदर पुराण [ ४५७ अर्थ-पंचेद्रिय जीव द्वारा अर्थ और काम भोग में परिणति करते हुए धर्म मार्ग को न जानते हुए पंचेंद्रिय विषय में मग्न रहना यही मिथ्यात्व का कारण है। मच्चे देव, गुरु, शास्त्र में संशय करना संशय मिथ्यात्व है। भगवान के कहे हुए वचनों में विपरीतना समझना विपरीत मिथ्यात्व है।।१३२४।। अराघाति मानग ळात रल्लर नल्लरेंड्र। विरागादि येल्ल मार्ग विकर् पत्तं विडुदलें ॥ मुरोगादि योब लिडि वुईर् कोल दरुम मेंड म्। वरागादि पिरवि याने वैयत्तु किरैव ने म् ॥१३२५।। अर्थ-राग द्वेष परिणाम से युक्त मनुष्य को देव कहना, पाप कार्य करने वाले मनुष्य को गुणी कहना और वैराग्य भावना से रहित धर्म-मार्ग मानना, सांसारिक विकल्पों को नाश करने एवं रोग आदि दुःखों के परिहार करने में जीवहिंसा आदि को धर्म मानना, जन्म मरण करने वाले जीवों को देव मानना, यह सभी विपरीत मिथ्यात्व है ।। १३२५।। विकार मिल्लोरुवन् शंग युलगत्तिल् विकारमेंड । मवावोडु मनवि नोगांद बरै मादवगळंड म ।। तगादन यावं शय्यवल्लर तलैव रेंड्र म्। तोगा विरि पोरुळ्ग किल्ले सूनिय मल्ल देंड्र म् ।।१३२६।। अर्थ-विकार गुण रहित कार्य को विकार ऐसे कहना, रागादि विकार रहित गृहस्थ को महातपस्वी कहना, अति क्रूर हिसा करने वाले प्राणी को वीर पुरुष कहना. जोव को सदा शून्य मानना और जीव कोई द्रव्य हो नहीं है ऐसा कहना-यह विपरीत मार्ग है। इसको शून्य मत कहते हैं ।।१३२६।। तन्ने कोंड यिर योवल तक्क नर् करुण मॅडम् । पिन्नता नून युन्गै पेरुंदव मावदेड । मुन्निट्राम् कनत्ति यावु मुट्टर केडुडोदि । पिन्नत्ता नित्तमुत्ति कुळक्कन पेशलामे ।।१३२७॥ अर्थ-अपने प्राण को नाश करके दूसरे का रक्षण करना-इसी को दया कहना, मांस खाने को धर्म कहना, प्रात्मा क्षरण २ में नाश होकर नया उत्पन्न होना-ऐसा कहना, बिना तपश्चरण के प्रात्मा का कल्याण मानना, यह सब क्षणिकवाद है ।।१३२७।। अरिविने वीडा मंडियाचारतागु मंडि। इरैवनर् कादलाला मिविरंडालु मागु ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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