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मेरु मंदर पुराण
[ ४६५ कुरिय रोम मेन वाम् ।
तेरियं दीपं सागरं ॥१२४८।। अर्थ- मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य प्रदेश में असंख्यात्त द्वीप तथा असंख्यात समुद्र हैं। यह वर्णनातीत हैं। उनकी संख्या कितनी है यदि ऐसा पूटा जाय तो उसकी संख्या पच्चीस कोडाकोडी उद्धार पल्य के रोमों की संख्या प्रमाण है ।।१२४८।।
उबरि तन्नीर् तेन सुरै। तिवरु परने मिक्कु विन ।। सुवैय्य नोरिन् वारिग । ळवंयुमेळ दागुमे ॥१२४६॥
अर्थ-लवण समुद्र खारे पानी से युक्त है तथा इक्षुवर, घृतवर, क्षीरवर, वारुणीवर 'के समुद्र हैं,तथा अपने २ नाम के से स्वाद वाले हैं , तथा शेष सर्व समुद्र इक्षुरस समान मधुर स्वाद वाले हैं ।।१२४६।।
सागरं जलचरंगट् । काक रगं लळ्ळ वाम् ॥ माग मादि पादनाल ।
भोगभूमि तीवे लाम् ॥१२५०।। अर्थ-असंख्यात द्वीप समूद्रों में जलचर प्राणी वही हैं। असंख्यात द्वीप समृद्र सभी स्थानों में हैं। चतुष्पाद वाले हाथी, सिंह, मृग आदि जो जीव जिस भूमि में रहते हैं उसे तिर्यग् भूमि या तिर्यग् लोक कहते हैं ।।१२५०।।
मुडिद दीपं मागर। तद वै विलगुं मीन् । विडगं निरंदन ।
मुडिविडा उरंगको ॥१२५१॥ प्रर्थ-अन्त में रहने वाले प्राधे स्वयंभू रमणद्वीप और पूरे स्वयंभू रमण समुद्र इन दोनों में अढाई द्वीप और कालोदधि तथा लवणोदधि समुद्र हैं। इनमें जितने जीव रहते हैं, उनसे कहीं अधिक स्वयंभू रमण समुद्र में रहते हैं। उनकी संख्या का कहना असंभव है।
॥१२५१॥ येलु सागर तीवत्ति नट्ट वाय । सूळ किडंद नंदीश्वर दीवाति ॥
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