Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 537
________________ ४८० ] मेरु मंदर पुराण सभी पदार्थों को एक साथ जानते हो, इसलिये आप सर्वज्ञ हो । सो ही कहते हैं । जो सभी चर अचर नाना प्रकार सब द्रव्यों को और उनके सब गुरणों को और भूतकाल, भावीकाल, वर्तमान काल की सब प्रकार सब पर्यायों को सदा एक साथ प्रतिक्षरण जानते हैं, इसलिये उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं । ऐसे सर्वज्ञ जिनेश्वर महावीर को नमस्कार हो । इति । प्राप सुगत हो । क्योंकि शोभन रूप से आप सब के सब प्रकार गत ज्ञाता हो । आप ही अजित हो । सांख्य, सौगत, चार्वाक्, योग, मीमांसक आदि परवादीगणों से परिकल्पित युक्तियों द्वारा अजेय हो । भाप ही पशुपति हो । पशु अर्थात् मंद बुद्धि जनों को भी धर्मोपदेश से रक्षा करते हो, अतः पशुपति हो । प्राप ही तीर्थंकर हो । तीर्थ अर्थात् प्रवचन को भव्यजनों की पुण्य प्रेरणा से समुत्पन्न कण्ठ तालु ओष्ठ जिह्वा घट श्रादि के ब्यापार से रहित होने से भव्य जनों को अभीष्ट वस्तु का कथन करने से संपूर्ण भाषात्मक मधुर गंभीर दिव्य भाषा रूप से उत्पन्न करते हैं । अतः आप तीर्थंकर को नमस्कार हो । आप शंकर हो । शं अर्थात् प्रभ्युदय निःश्रेयस को करने वाले हो । सुख को भव्यजनों को हितोपदेश से करते हो । इसलिये शंकर हो । सकल कर्म मलसे रहित होने से श्राप बने हो । शुद्ध हुए हो, अत: सिद्ध हो । प्राप ही बुद्ध हो; अपने में अपने स्वरूप को जिन्होंने जिससे जान लिया है ऐसे ज्ञान वाले श्राप . ही बुद्ध हो । उमापति भी प्राप ही हो। उमा अर्थात् कीर्ति के वल्लभ पति तथा उमा अर्थात् लक्ष्मी के पति हो । अतः उमापति श्राप ही हो। जिनपति भी आप ही हो। अनेक भव वन में विषम दुखों में पटकने वाले कारणों को मिथ्यात्वादि को कर्मठ दृढ कर्म वैरियों को जीतते हैं सौ जिन हैं । अप्रमत्तादि या असंयत आदि गुरणस्थानवर्ती श्रावक साधु एक देश जिन हैं । उनके पति श्राप ही हो। इसलिये जिनपति हो । ऐसे समवसरण से परिवेष्टित, त्रैलोक्य के ईश्वर, जिससे बढकर अन्य नहीं, ऐसा निरतिशयविभूतिरूपं प्रष्ट महाप्रातिहार्यों से तथा चौतीस प्रतिशयों से सहित, अनंत चतुष्टय मंडित, द्वादशग परिवोष्टित, त्रैलोक्यनाथ, देवेंद्रादिक के मुकटतट में लगी मणियों के किरणसमूह से रंगे गये हैं लाल चरण कमल जिनके ऐसे भगवान् श्रहंत परमेश्वर तुम सब को भव में होनेवाले दुःखों से हटाकर रक्षा करें । का श्लोक है कि जो अच्छे राजा होते हैं वे सद्धर्म की रक्षा करते हैं । तथा सदूधर्म भी उस राजा की रक्षा करता है। ऐसा परस्पर में निमित्त है । जैसे माली बगीचे की रक्षा करता है तो बगीचा भी माली की रक्षा करता है, इसी प्रकार सर्वत्र परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध है ।। १३०२ ।। मुळवु नी मुळुदुक्कु मिरंव नी । मुळ तन्वडिविन मुळुदागि नी ॥ Jain Education International मुळ कंडुनरं दा इंब मुटु नी । मुळ विरित्तु नान्मुग नागिनी ।। १३०३ ॥ अर्थ- इस लोक में चराचर वस्तु को देखने की शक्ति आप में ही है । आपका स्वरूप सर्वव्यापी होकर अनंत ज्ञान से सर्व पदार्थ को देखने वाले तथा जानने वाले हैं। सम्पूर्ण सुखको प्राप्त हुए श्राप ही हो। जीवादि सकल पदार्थों को दिव्यध्वनि के द्वारा चारों अनुयोग रूप में कहकर चतुर्मुख को प्राप्त हुए आप ही हैं ।। १३०३ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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