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मेरु मंदर पुराण
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गोपुरत्तिन् पुरंगुणक्क दान दिशं । वापि मानंद या माशिलाद नीर् ॥ पूविना निरैदु पोन् मरिण इनाय दोर् । सोपनं शूळं दवे तिगत्तु मागुवै ॥१२७३।।
अर्थ-पूर्व दिशा में रहने वाली वेदी के बाहर पूर्व दिशा में नंदा नाम की बावडी - है। वह बावडी अत्यंत निर्मल जल तथा कमलों से भरी हुई स्वर्णमयी सोपान वाली है। उस
बावडी के चारों ओर वेदी सहित मंडप है ।।१२७३।।
गंदकुडि मंडबगं नूटेट्ट वै कानिर । पंदि योरु मूड, निरै यागि वैडूर्य यत् ॥ तंब मिशै इरुंद तलमंड डैय ताम् । मंदरंग दम्मिडै यनेगं शिलै यामे ॥१२७४।।
अर्थ-उस गंधकुटी के एक सौ पाठ मंडप हैं। उनको देखने से तीन पंक्ति से युक्त उत्तर दक्षिण तथा पश्चिम में छत्तीस-छत्तीस वेदियां हैं। कुल मिलाकर एक सौ आठ वेदियां हैं, और वैडूर्य रत्नों से निर्मित वहां चार स्तंभ है। उनपर तोन २ प्रकार से युक्त स्तूप हैं। यह सब परस्पर स्पर्श न करते हुए भिन्न २ हैं ॥१२७४।।
शम्मनि मंडपत्ति निडे शीय वन मीदु। . वम्मलइन मिशै इरुंद वरुक्क नवन् पोल ।। वेम्मै विनयं केड मिरुंद तिरु कुरुवं । तन्मळ वैङनरु धनवागि युयरंदनवे ॥१२७५॥
अर्थ-रत्नों से निर्मित उस गंधकुटी के मध्यभाग में स्वर्णमयी सिंहासन है। वह सिंहासन ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उदयाचल से उगता हुआ सूर्य यहां पाकर विराजमान हो गया हो। उसी प्रकार पाप कर्म को नाश करने वाले जिनेंद्र भगवान की पांच सौ धनुष उत्सेध वाली पद्मासन प्रतिमाएं वहां पर विराजमान हैं। ।१२७५।।
इरु मरुंगुम चामरैग ळियक्क मियक्क । मरुविय मंडलमुं मलर पिडियु मुक्कुडयुं॥ विले मलगळ सोरिदमर रेत विननींग ।
परवु पन्निरंडुं सूळं दिलंद वांगे ।।१२७६॥ अर्थ-जिनेन्द्र प्रतिमाओं के दोनों पाश्वों में धवल चंवर को ढोल रहे हों-इस
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