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मेरु मंदर पुराण अर्थ-उस अशोक वृक्ष की शाखाओं में मोती, रत्न तथा पुष्पों के हार लटक रहे हैं और उस वृक्ष के फूल खिले हुए हैं। वे पुष्प अत्यन्त सुगन्धित है। उस सुगन्ध के मधुर रस का रसास्वादन करने के लिए भ्रमर अपनी इच्छानुसार रसास्वादन करके उड जाते थे,
और उडते समय उनके झींकार शब्द कानों में ऐसे मनोहर लगते थे जैसे कि मेघ गरज रहा हो ॥११८०॥
तरुवलि तलनल तडत्तिन् मोदला। विरुदुवु मलर मलरुड म दिडे ।। मरगत मरिणगळाय मुरिगळ वांडूळ ।
ररुमरिण यालि यंड्र रसोग निदे ॥११८१॥ अर्थ-उस वृक्ष की शाखाएं अत्यन्त बलिष्ठ हैं । उस वृक्ष से षट् ऋतुओं के फल फूल भगवान के अतिशय के प्रभाव से सदैव उत्पन्न होते हैं। उस वृक्ष के पत्ते ऐसे सुशोभित होते थे मानों हरे रत्नों की मरिणयां चमक रही हों ॥११८१॥
मुत्तम वाय शेरिंदन निरैद मुम्मदि । यौत्तु मू वुलगिनु किरै मै योदुव ॥ पत्तिइर कुइंदु निलाइरिंदु मेर् ।
शित्तिमा वेदै मुक्कवि सेरं दवे ॥११०२॥ अर्थ-उस अशोक वृक्ष के चारों ओर मोतियों के हार लटके हुए थे, मानों एक के ऊपर एक चंद्रमा ही पाया हो। अहंत भगवान के ऊपर तीन श्वेत छत्र लगे हुए हैं जो रत्नों समान देदीप्यमान होकर चमक रहे हैं ॥११८२।।
पुंडरीगत्तोडु पुनरं द चाय पोर् । पिडियिन कोळ निळर् ब्रम्ह मूतिइन् । मंडलम् मलरडि वनंगि पिन्ट्रन ।
कंडवर पिरवि येळ कान निदे ।।११८३॥ अर्थ-उस वृक्ष के नीचे जहां जिनेन्द्र भगवान विराजमान है, पीछे की ओर प्रभामंडल है जैसे लाल कमल सहित कांति को प्रकाश करता हो। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में नमस्कार करके जो भव्य जीव प्रभामंडल को देखते हैं वे अपने पहले के सात भवों को जान लेते है ॥११८३॥
अंदमिलु वगयरान वानवर् । बुंदुभि मुलक्कोलि तोउरंद रावळ ॥ बंदुडन् वीळं द वानवर पै पूमळे ।। पवियं परवयं पिरवु मागवे ॥११८४॥
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