Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 505
________________ ४४८ ] मेह मरर पुराण लरिंदन सुरंद कादलडि मुरै पुडुब लोयंद। विरिपन विनंगळेला मिरवि मुन निरुळ योत्ते ॥११८८॥ प्रर्य-उस भगवान के मुखकमल को देखते ही दोनों हाथों को कमलों की कली के समान बोडते ही उनके मन में प्रत्यन्त मानन्द उत्पन्न होता है। प्रानन्द होते हुए इस प्रकार उनके हृदय कमल विकसित होकर दोनों नेत्रों में प्रानन्दाश्रु निकल पडते हैं । तब उसी समय उनके शरीर में रोमांच खडे हो गये। उनके हृदय में जो मानन्द पा था उस पानंद को हम वर्णन करने में अशक्य हैं, वे दोनों कुमार आगे न बढकर भगवान के सामने खडे हो गये। खडे होते ही ऐसा प्रतीत होता था मानों दोनों सूर्य चंद्र ही आकर उपस्थित हुए हों । इस प्रकार वहां पर प्रकाश होने से जैसे अन्धकार नष्ट होता है, वैसे इन दोनों कुमारों के हृदय में छिपा कर्म रूपी अन्धकार नष्ट होने लगा ॥११८८॥ तुंव मार नेमियान काक्षि नल्लोळ क्क भाय । शवंवन् मुन्बु निड़ धरुम चक्करत्ति मुंवर ॥ मैदेरा नवर्गळेरि वलं कोडार चनइन् मुदि। तुंबि पोर परिणदेख्दु वाळ तु बु तोडंगि नारे ॥११८६॥ अर्थ-प्रकाश से परिपूर्ण ऐसे मंडप में क्षायिकज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे प्रात्म स्वभाव गुण को प्राप्त और उनके सामने धर्म चक्र से युक्त रहने वाले केवनी भगवान के पीठ के ऊपर चढकर ये दोनों राजकुमार पाठ प्रकार की पूजा सामग्री से भगवान की पूजा की और साष्टांग नमस्कार कर खडे हो गये , और खडे होकर भगवान की स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया॥११८६॥ कामादि कडंददुवू कवलप्पन नहुँददुवं कमल पोदिर । पूमारि पोळिय वेळंबळि य, पोन्नेइन् मंडलत्त सोग ॥ तेमारि मलर पोळिय शीय वनयमरंददुवं दवर कोमान् । ट्रामादि येनिंदु पनिदेख्ददुवं तत्व मेंडगवु वेन ॥११६०॥ अर्थ-वे दोनों राजकुमार इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे भगवन् ! हे रागद्वष परिषहों को जीतने वाले भगवन् ! आपको मोक्ष लक्ष्मी ने वर लिया है चतुर्णिकाय देवों ने पाकर पुष्पवृष्टि की। देवेंद्र ने आपके चरण कमलों के नीचे दो सौ पच्चीस स्वर्ण कमलों की रचना की है। प्राप उनको स्पर्श न करके चार अंगुल अंतरिक्ष ऊचे गमन करते हैं । जैसे पक्षी दोनों पांव समेट कर चलते हैं उसी प्रकार अप भी चलते हैं। और देवन्द्र तीन प्रकार की वेदी अशोक वृक्ष, सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, सिंहासन, भामंडल, चामर आदि तुम्हारे अतिशय सदैव रहते हैं। जब वे रहते हैं तब देवेंद्र पाकर षोडश प्राभरणों से सुशोभित होकर नमस्कार करने योग्य प्रापको नमस्कार करता है ।।११६०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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