Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 512
________________ मेरु मंदर पुराण [ ४५५ इरव निन्नडि यडे युलगियर्फयुं । पेरु परु लळवै युं पिळत्त नीदियुं ॥ मरविन मनमिग वरुदर केदगें । पिरविइन् विकर्षमुं वोटिन पेट्रिएं ॥१२१०॥ ___ अर्थ-तदनन्तर वे दोनों श्रुतकेवली भगवान से करबद्ध प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु ! तीन लोक का स्वरूप, जीवादि तत्वों का प्रमाण, उन तत्वों को मिथ्यात्व के कारण बाधा पाने वाले पाप कर्म, आत्मा के अन्दर आकर बंध के होने वाले कारण तथा संसार तथा मोक्ष के स्वरूप का माप विवेचन कीजिये ।।१२१०॥ अरुळेन विरैजलु मरिण कट्टिणपुर । मुरसु निदिर् वदि ने दु केवल ।। तिरुविडु तूदि पोल सेंज्वल वल्लिदान । मरुविनान् मुनिवर तस् मरणतगत्तये ॥१२११॥ अर्थ-इस प्रकार बियालीस प्रकार के प्रश्न करने के बाद भगवान की दिव्यध्वनि ऐसी प्रगट हुई, जिस प्रकार मेघों की गर्जना होती है। उसी प्रकार गर्जना के समान भगवान के सर्वाङ्ग से दिव्यध्वनि के खिरने के बाद सम्पूर्ण भव्य जीव जो बारह सभाओं में बैठे थे , उन सब के ऊपर जलवृष्टि के समान दिव्यध्वनि खिरने लगी ॥१२११।। पोर तिरुमोळियुमे पदिनेन पाडेयाय । मरुविय दोजन मिगुदि मंडल ॥ तरुगिडै मुडि वदनगत्त वर्केला । मरुवर्ग यालिनि तायोलित्तदे ॥१२१२।। अर्थ-उपमा रहित दिव्यध्वनि एक होने पर भी वह सात सौ पठारह भाषाओं में परिणत होकर भगवान विमलनाथ स्वामी के ६-६० योजन विस्तार वाले समवसरण की बारह सभाओं में बैठे हुए भव्य जीव अपनी २ भाषा में एक साथ समझ गये ऐसी वह भगवान की वारणी प्रगट हुई ॥१२१२।। बिनविय पोळेला विळुगि मैत्तवर । मनं वलि मोळिवाळि वांगि येप्पोर ॥ बनित्तनियागं नार्पत्तिरंडदाय । मुनिवरचंदु मामुरिण वर् कोदिनार ॥१२१३॥ अर्थ-जिस समय भगवान की दिव्य ध्वनि खिरने लगी उस समय ये दोनों मेरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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