Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 509
________________ ४५२ ] मेरु मंदर पुराण तामह मड़े नेय मरिण मुक्कुडे कोळ मिक्क बिनै युडेय सेल्लुं । शेम मुड नेरियरुळि सोय बने यमरं बने यम् शेल्बनीय ॥११६६॥ पर्व-मापको किसी प्रकार की इच्छा नहीं है, तो भी देवों के वाथ हमेशा बजते रहते हैं । चतुर्णिकाय देव पुष्पवृष्टि करते हुए छत्र चामर चारों मोर ढोरते रहते हैं। सुगंधित पुष्पों से युक्त हारों को पहनते रहते हैं अशोक वृक्ष के फूलों को देवों द्वारा माप पर बरसाये जाते हैं। अपने प्रभामंडल के किरणों से चारों ओर फैले हुए हैं। मानों तीनों प्रकार के चंद्रमंडल खडे हुए के समान तीन छत्र माप के ऊपर सदेव प्रकाशमान हैं। और अपनी दिव्यध्वनि से मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हुए, सिंहासन पर विराजमान हे भगवन् ! भाप ही माश्वत संपत्ति को देने वाले हैं। इस प्रकार दोनों कुमारों ने भगवान की स्तुति की । ॥११ ॥ इने यन तुबिई नो डिरें मेल्ले इन् । विनेगळिन परगळ व मेंदर कन् । मुनिम बडिविन मुस्वि नितम् । विनमळे मुबलरल बेरिय वेनिनार ॥१२०॥ अर्थ-इस प्रकार उन दोनों कुमारों के भगवान की स्तुति करके भक्ति से नमस्कार करते समय कर्मपिंड का भार हल्का हो गया। इस प्रकार हल्का होने से उन दोनों कुमारों ने सर्वोत्कृष्ट वैराग्ययुक्त संसार शरीर भोग से विरक्त परिणाम होने से उन भगवान के पास निग्रंथ दीक्षा धारण कर कर्मनाश करने का विचार किया ॥१२००॥ येत्तरं गुरगत्तव तिरव यामुई। गोत्तिरं कुलमिव येरुळ वाळिनि ।। नोट: पिरवि नीर कडले नींदु नर । ट्रेप याम् तिरुवुर वेंडिरिरै जिग ॥१२०१॥ अर्थ-इस प्रकार मन में विचार कर कहने लगे कि गणधरादि मुनियों के अधिपति! हे स्वामी सुनो! हमारा कुल उच्च है, इसलिये अत्यन्त दुस्तर संसार रूपी समुद्र से पार करने के लिये से तुरूप मुनि दीक्षा का अनुग्रह करो। इस प्रकार भगवान से प्रार्थना की ॥१२०१॥ मडिगळ कडगम मृत्तिन् पून्गळुम् । करि मिरी कांचियु नानु माडयं ॥ वरिवर तडकैयाल वांगि विट्टवें। विड़ सुडर विळक्किन मुन् निमंतु वोळं दवे ॥१२०२॥ अर्थ-इस प्रकार भगवान ने इनकी प्रार्थना सुनकर तथाऽस्तु कहा। तदनन्तर वे दोनों कुमार जैसे अपराधी दुष्ट आदमी को हद्द पारकर देते हैं, उसी प्रकार अपने शिर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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