Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 508
________________ मेरु मंदर पुराण [४५१: श्री महावीर जैन आराधना के पोटु वगैयार पोरुळेला मोंड्र येडूरुळ, शंद पोटुव लाद । विदि वगयार पोळेलावेरे अँड्रन्विरंडु मोड़ ड स् ॥ पोदुविरिव पोरुनिगळ, वाल विव्वेरा योंड़ मा मेंड्रा लुन सोन् । मेदि फेरि मिलादाकु मारागितोंड्रादो वानोर कोवे ।११६७॥ अर्थ- हें देवधिदेव भगवन् ! तुमने उपदेश दिया है कि सब ही जीवादि द्रव्य सामान्य रूप से एक हैं और विशेष गुणों से भिन्न २ हैं । ऐसा भव्य जीवों को समझाया है । अस्तित्व, नास्तित्व, स्वभाव पर्याय, विभाव पर्यायों से परिरणमन करते हैं । इसी तरह अल्प ज्ञानी लोग आपके उपदेश को नहीं समझते है । अतः उन्हें प्रापके अनेकांत मन में विरोध भागता है । जैसे कि समंतभद्राचार्य ने कहा हैं: - Jain Education International अनेकांतोऽप्यनेकांतः प्रमारणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणस्ते स्यादेकांतोऽपितान्नयात् ॥ अर्थ - अनेकांत भी कथंचित् प्रमारणनयों के निमित्त से अनेकांत है । अनेकांत माण दृष्टि से कथंचित् अनेकांत रूप है । और विवक्षित नय दृष्टि से कथंचित् एकांत रूप है । ।।११६७।। प्रादिया याविला गेंदमा यदमिला यडेया देदु । पोदि याय पोदिलाय पुरत्तायप्पुरिळी निक्कुंमगत्ताय मूंड. ज्योतियाय् ज्योतिलाय् सुरुंगदाय् पेरुगादाय् तोंड्रामाया । नदि या नीदिलाय निर्नपरियाय विनंप्पगं येम्मिरैवं नोय ॥२१६८ ॥ अर्थ- ज्ञानदर्शन से युक्त स्वभावरूप श्रात्मस्वरूप को प्राप्त हुए हे भगवन् ! द्रव्यार्थिक नय के तन्मय से अनादि कहलाने वाले संसार का त्यागकर अन्तरहित तत्व को प्राप्त होकर शाश्वत रहने वाले आप ही हैं । इन्द्रिय सुख को त्यागकर प्रतींद्रिय सुख को प्राप्त होने वाले श्राप ही हैं । प्रवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त हुए आप ही हैं। परपदार्थ प्रापके अन्दर न घुसने के कारण स्वपदार्थ को जानने वाले स्वयंभू प्राप ही हैं । सकलगुरणों को ज्ञानानंद. स्थिति को प्राप्त हुए प्राप ही हैं। शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त हुए आप ही हैं। ग्रात्म ज्योति को प्राप्त हुए प्राप ही हैं । प्रापके प्रन्दर प्रात्म-ज्योति के अलावा बाहर का अन्य कोई प्रकाश नहीं है । ग्रापमें सभी गुण कभी कम ज्यादा नहीं होते हैं । द्रव्याधिकनय से जन्म-मरण रहित होकर नीतियुक्त प्रारंभ स्वभाव से युक्त प्राप ही हैं। पर्यायार्थिक नय से नीति स्वरूप से रहित होने वाले प्राप ही हैं । प्रचिन्त्य स्वरूप प्राप ही है । कर्म शत्रु के नाश करने वाले भाप ही हैं। इसलिये माप ही हमारे स्वामी हैं ॥ २२६८ ॥ " कामर बुंदुभि करणं कडिमलर मामळं पुळिय कवीर पोगं । मरु पूस पिंडि इन कोळ मंडलस् पोम् दिशं कुलब तिंगळ बट्टं ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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