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मेरुमंदर पुराण
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बलिपीठ पर हैं । उस ध्वजा पीठ पर एक कोस चौडा गंध कुटी मंडप है । यह सभी मिलकर समवसरण में गंध कुटी का स्थान एक कोस विस्तार वाला है ।। ११७२.
वान् पळिगालियंडू नालेंदु विल्लयरं द । नान्गु तंबंगळेंद नवमरिण मालं वाईर् ॥
शूळदं तनडुबेन् मुत्तमाले गळ् पत्तु बिल्लु । ताळं, दुशम्मुगिलि निड्रम तारं वंदिळिव पोंडू ।। ११७३ ॥
अर्थ- -उस गंधकुटी का मंडप स्फटिक मरिण से युक्त है और भगवान की ऊंचाई से बीस धनुष ऊंचा हैं । उस समवसरण के चारों कोनों में चार स्तंभ है । मंडप में ऊपर से नीचे तक रत्नों के हार लटके हुए हैं। बीच में एक मोतियों का हार ऊपर से नीचे दो घनुष प्रमाण लटका हुआ है । यदि दृष्टि डालकर देखा जाय तो वह ऐसा प्रतीत होता कि मानो आकाश से पानी बरस रहा हो ।।११७३ ।।
मूंडू विल परंद गंडू मुळुमारिण पोटं शोय । मेंडू. मे लेळ व पोंडू विरंदन वंद पट्ट ||
तांडू पोनन म पोन् वोसियु नुन् टुगिलु मेवि ।
तोंडू मंडपत्ति नुळळार सुखरु मिळविरवि पोंड्र ॥। ११७४ ॥
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अर्थ - इस मंडप का मध्य भाग तीन भाग उत्सेध तथा यथा योग्य इसका विस्तार है । रत्नों द्वारा निर्मित पीठ है। वह पीठ ऐसी लगती है मानों सिंह को उठाकर ले जा रहा हो । उम सिंह के समान पीठ पर स्वर्णमयी बिछोना, रेशमी पट वस्त्र बिछा हुआ है । उस पर चार अंगुन प्रधर जिनेंद्र भगवान विराजमान हैं। वे सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं ।
।।११७४।।
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विल्लर यगंड, यरं दविळ मरिण पीड मेय । वेल्लै निन् ट्रिरु मरंगु मियक्कर् चामरं ईथक्क || नझेलिर् पीट मेवि नाग विदिररु नाना । विलुमिळ दिलंगु तोन् मेल् विळगुं चामरयराणा । ११७५ ।
अर्थ
- उन प्रत भगवान के विराजमान रहने को पीठ प्रावा धनुष चौडी है । उस
के चारों ओर तथा भगवान के आजू बाजू यक्ष देव व भवनवासी देव चंवर ढोरते हैं ।। ११७५०
तामरं तत्तेदु पोम्मलं तन्नै चूळं द । कामर कनि येन कुळात्ति निन् नांगि लाद || चामरं तोगुदि नान्गु पत्तु नूराइर तान् । शोमरं बैंड मुंड कुडे इनान् बुडेय वामें ।। ११७६॥
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