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मेरु मंदर पुराण कडिगैयुं जाममुं कलंद संदियु । मुडिविनिर् कंडे शंगगंल भंरिग ॥ इडियन तम्मिले मुळगि इन्नोलि ।
पडुवदा मुप्प दोजन परक्कुमे ॥११४५॥ अर्थ-चौबीस मिनट के बाद जयघंटा बजता है। तीसरी घडी में शंख बजता है। मध्याह्न में बारह बजे जयघंटा बजता है । इस प्रकार तीन प्रकार से वाद्य ध्वनि होती रहती है। इन वाद्यों के शब्दों की ध्वनि तीन योजन तक सुनाई पडती है ।।११४५।।
पेरुमलर मारिय मेरि यादिइन् । ट्रिरु निल वायुदलग लिरु महंगिस ।। मरुविय कवि गलेंदि कंदप्प । धश्सर्ग डेविमार् पाडलागुमे ॥११४६।।
अर्थ-यह बजने वाले वाद्य और देवों के द्वारा पुष्पों की वृष्टि से युक्त चैत्यालयों क दोनों ओर गंधर्व स्त्रियां वीणा आदि अनेक वाद्यों के संगीत करने के मंडप हैं ॥११४६।।
मंगल निरयवे वायदल तोरण । पंदिई निरयवं पडिमुडि वेला ॥ मिगंला बायबलु काव लोंबलिर् । ट्रगि नार् सोद मीशान लादरे ॥११४७॥
अर्थ-जगतीतल नाम की भूमि के चारों ओर अष्ट मंगल द्रव्य क्रम रूप से पंक्ति. बार स्थित है । द्वार में मर्कर तोरण से युक्त पंक्ति है । इस द्वार पर सौधर्म ईशान स्वर्ग के देव रहते हैं ॥११४७॥
इरवि येनरिय वाम परिधि इनिड । मरुविय देनमरिण योलिशै मंडल ॥ तुरुवर पिवळवा योलियिर् ट्रोड्रिडं।
तिर निले येम्मेला तिर निलयमे ॥११४८।। अर्थ-प्रसंख्यात सूर्य इकट्ठे होकर उनका प्रकाश होने के समान उन श्री निलयों में रहने वाले रत्नों का प्रकाश ऐसा होता है कि उनकी उपमा देने को अन्य कोई वस्तु नहीं है ॥१४॥
पलनेरि योलिमनि पईड परियु । मिलवयुं बल्लियु मिरंद कृडम ॥
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