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मेरु मंदर पुराण
[ ४०७ जिन २ गलियों में होकर विहार करते थे वहां २ कल्पवासी देव कल्प वृक्षों को लाकर जैसे मेघ जल की वृष्टि करता है उसी प्रकार वे देव वृष्टि करते थे ॥१०३२।।
वाम नर् कन् मनिन् मरिदेळंदु नडं पुरिदार । कामं बिल वग वरसर् करणन् सुळन् ळंबार ।। केमकर नामगळो रायिरत्तोरिलैं ।
तामंगलं पाड वर्गळा विदिर पडिदार् ॥१०३३॥ अर्थ-सुन्दर रूप को धारण किये हुए देवलोक आकाश में उडकर ऊपर प्रधर नृत्य किया करते थे। भवनवासी देव भी अत्यन्त सुन्दर नृत्य करते थे। कल्पवासी देव सम्पूरणं जगत में रहने वाले जीवों की शांति प्रदान करने वाल भगवान की एक हजार पाठ नामों से स्तुति करते थे ॥१०३३॥
शंकमल मुंड्रिरंड. पंकय मलरं दन् । वंकमलत्तरियन ट्रिरुडियिनै वैत्तळ विर् ॥ ट्रिगंळन कुडे मुम्मयुं मंडलम शेरिद ।
पोंगिय वेन्शामर गळ पूमळे पुळिदार् ॥१०३४॥ प्रर्थ-एक लाल कमल के ऊपर मानों दो कमल उत्पन्न हुए हों। ऐसे प्रतीत होने के माफिक देवों के द्वारा निर्माण किया हुआ कमल, पुष्पों पर प्रतीद्रिय ज्ञान स्वरूप ऐसे विमल. नाथ तीर्थकर अपने चरण रखते ही चंद्रमा के समान धवल वर्ण को प्राप्त हुमा तीन छत्र व प्रभामंडल सहित इन्द्रों के द्वारा चंवर ढोरते हुए भगवान के ऊपर पुष्प वृष्टि करते थे ।१०३४।
मादवर् गन् मलरडि पनि, पिने दार् । शोदमनो डेन्मे युलगांतर तो देति ॥ नाद नेविर् वैत्य मुगरागि मुन्नडदार् । घाति केड वंदतिरु वोडु शाशि शेंड्रार् ॥१०३५॥
अर्थ-उस समवसरण में तपश्चरण करने वाले दिव्य मुनिगण भगवान के चरणो में नमस्कार करके भगवान के पीछे २ गमन करने लगे। सौधर्म इन्द्र के साथ माठ प्रकार के लोकांतिक देव भगवान को नमस्कार करके उनका मुख भगवान की तरफ करके पीछे २ चलते थे। उनको पीठ नहीं दिखाते थे। घाती कर्मों का नाश किये केवली भगवान के पीछे साथ शची प्रादि देवियां विहार करती थी ।।१.३५।
पूर कलशं मुदलेन् मंगलेंगळेवि । बेरि मलर् मडंदै योडु मेविन रिळंबार ॥
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