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मेरु मंदर पुराण
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पल निर पायड भूमि परमरण दरिद् पोल । उलगला मडंगु मेनु मुळिळरु कादमागि ॥ निलविय मदिलिन् भूल निड़ कट्रियेंग नांगिर ।
पल वन मागि पैवोन् मदिलिने शूळं द दुंडे ॥१०६२।। अर्थ-उस सुन्दर वनभूमि का विस्तार जिस प्रकार अहंत केवली भगवान का विस्तार है, उसी प्रकार का था। कितने ही लोग उसमें समा जाय किंतु पता नहीं पडता था। ऐसी वह वनभूमि सभी जीवों को आकर्षित करने वाली थी। उस वन भूमि के चारों पोर उदयतर नाम को वेदिका है। उस वेदी के चारों तरफ प्रीतिधर नाम की दूसरी वेदिका है। और वनभूमि के बीच में और कोनों में अर्थात् एक २ कोने में चार-चार स्तूप हैं । उस भूमि में अनेक प्रकार के वृक्ष हैं ॥१०६२।।
कुट्टिय तिरुमलंगुम गोपुर तुयर मागि । येटुळ तूवै निड विजिक्कु ळेट्टे यापे। घट्ट वेनकडय सेदि मरंग ट्टि वटै शारं द ।
वेटुळ वपनुक्कादि पादव मिवदि निप्पाल ॥१०६३॥ अर्थ-उस वनभूमि के कौनों के.स्तूपों के दोनों बाजू में जितनी ऊंचाई में वे गोपुर हैं । उतना ही विस्तार उसके चबूतरे का है। एक २ चबूतरे के साथ दो-दो स्तूप हैं । इस प्रकार चारों चबूतरों के मिलाकर पाठं स्तूप हो जाते हैं। और एक २ कोने में छत्रत्रय सहित दो-दो चैत्य वृक्ष हैं। सभी मिलाकर पाठ चैत्य वृक्ष हैं। उन चैत्य वृक्षों की बाजू में एक २ कल्प वृक्ष है । इस प्रकार दोनों मिलकर पाठ कल्प वृक्ष हैं ।।१०६३।।
वीदिये सारंयु मुक्कोन वट्ट नार शेदुर मागि । नीदिया निड वावि येट्ट, मुंडि वढें यदि योदिय वगर्र नोडि कुळिलु वाय पशि योंडिर् ।
पोदु कोंडोंड्रि मन्नोर् पनिवर् पोयतूबै येपद ॥१०६४॥ अर्थ-उस वन भूमि में महावीथी के कोने में जाते समय एक २ कोने में एक २ बावडी है। उसके प्रागे वृत्ताकार से युक्त एक और बावडी है। इस प्रकार एक २ कोने से संबंधित तीन बावडी हैं। कुल मिलाकर चौबीस तडाग (बावडियां) हैं। इन दोनों मेरु और मंदर राजकुमारों ने पहले कौने के तीसरे नम्बर के तडाग में जाकर स्नान किया और स्नान करके मागे वृत्ताकार नाम के तडाग में दांतुन आदि क्रियामों से निवृत्त होकर चतुष्कोण में रहने वाली पुष्प वाटिका में प्रा गये । और वहां से पुष्प लेकर स्तूप के पास गये ॥१०६४॥
तिरकर कोसमोंगि शिनंग केंडिशेयु मोडि । परुदि योर् कोशमागि पकर्य गत्त सोल ।
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