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मेरु मंदर पुराण
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अर्थ-वह खातिका (खाई) परिपूर्ण पानी से भरी हुई है । उसको देखते ही ऐसा विदित होता है जैसे कोई दूसरा समुद्र ही हो। संसार रूपी तरंगों ने हमको नहीं छोडा तो भगवान को देखते ही मेरे मन की तरंगे हमें क्या छोड देगी? ऐसी भावना इन्होंने की । वह खातिका ऐसी दीखती थी कि उस पर फूलों से प्रावरण कर दिया हो । मानो यह भगवान मुझे छोड देंगे । ऐसी कल्पना उन दोनों राजकुमारों को उत्पन्न हुई ।।१०५४॥
परिणत्तेळित्तनय वारि वासवान् सुवय तारंवङ् । कनगु वा काळंदु तोंड्रि यडेंदवर् तान् मट्टागि ॥ पनि उयर विलादु पोदिर पइंड.वोन् शवीदि ।
मरिणयोळि परंदु वान विर्कळाय् मयंगु निड़े ॥१०५५।। अर्थ-उस खाई में जैसे नीलरत्न का चूर्ण करके किसी ने डाला हो ऐसी शोभायमान होती थी। उस खातिका के पानी में यदि उतरकर देखा जाय तो उसमें घुटने तक का हो पानी था और वह भूमि के समान दीखता था। इस रत्न के प्रकाश से वह स्वर्ण से निर्मित वीथी ऐसी दीखती थी जैसे प्राकाश में पांच वर्ण वाला इन्द्रधनुष ही हो। उसी प्रकार देखने से मनुष्य को भ्रांति उत्पन्न करती थी ।।१०५।।
कादत्ति नरय गंड रवातिगे कमलमादि । पो कोय तंगै यदि पोन् सैदों रणं कडंदु ॥ मेदक्क मरिणइ नाय पादत्त वीदिनिड्र। बादि गोपु रत्ति नादि निलयळ वागि पोन् ॥१०५६॥
अर्थ-वे दोनों कुमार उस खातिका में से पुष्पों को लेकर उस दो कोस वाली ग्वातिका को उलांघकर साढे तीन कोस विस्तार वाली वीथी में रहने वाले उदयतर नाम के गोपुर में जो नीचे के भाग में स्वर्ण और रत्नों से निर्माण किया था-प्रवेश किया ॥१०५६।।
पालिगै मुदल वाय परिचंद मुडय व । मालयुं शांदु मोंदि वनंगिनरागि पोगि ॥ शीलं पोर शंपो निजिशिलंगळीरोंब दोंगि ।
माले पोर शूळ कादमगल वल्लिवनत्तै शेरं वार् ॥१०५७॥ अर्थ-उस गोपुर में निर्माण की हुई वेदियों का अठारह धनुष का उत्सेध था। उस को छोडकर आगे चलकर एक कोस से युक्त लता भूमि में प्रवेश किया ॥१०५७।।
वल्लि मंडपंगळ पंदर् वैर वालुगत्तलंगळ् । विलुमीळ दिलंगुस भूमि विळद पूवनइन् वोय ॥
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