________________
४०० ]
मेह मंदर पुराण
की मूर्ति के सामने खडे होकर प्रार्थना करने लगा कि हे नाथ ! मैंने भव २ में पाप पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये हैं। आप उनको क्षमा करें। और लौटकर अपने नगर में गया और मादित्यदेव अपने पवन लोक में गया ॥१००६॥
करुविना लोरुव नेडम कडु नवं नरगि नाळं वान् । पोरैना लुरुवन् पुत्ते लुलग दि वीडु पुक्कान् ।। करुवोडु पोरइ नाय पयनिवै कंडु पिन्नू ।
पोरै योडु सेरविलादार् पुल्लरि वाळ रंड्रे ॥१०१०॥ अर्थ-क्रोध परिणाम से शिवभूति मंत्री के जीव ने अनेक नरकादि दुखों को भोगे। क्षमा धारण करनेवाले सिंहसेन राजा ने देव सुख को प्राप्त करके जिन दीक्षा लेकर दुर्द्ध र तप करके मोक्ष प्राप्त किया । इसलिये क्षमा भाव से तथा शांत भावना से उत्तम होने वाले फल का ज्ञान होने के बाद भी यदि जीव के मन में क्षमा भाव नहीं उतरता है तो वह संसार में ही दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है ।।१०१०॥
। ग्यारहवां अध्याय समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org