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मेव मंदर पुराण
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अंदमा नरगन् नाग मारळ नरगण मद्र.म् ।
मैंदन संगिक्यु वित्तुदतंन् टन बरविवामे ॥८६॥ अर्थ----उस शिवभूति मंत्री ने अपनी पर्याय को छोडकर प्रागंध नाम की सर्प पर्याय को धारण किया । पुनः वह शरीर को छोड़कर चमरी मृग हो गया। उस चमरी मृग की पर्याय को छोडकर पुनः अजगर सर्प हो गया। उस पर्याय को छोडकर चौथे नरक में गया। वहां से नरक की मायु पूरी कर इस मध्य लोक में भील हो गया। भील की पर्याय छोडकर तीसरे नरक में गया। उस नरक में से निकल.कर मृगसिंह नाम का तापसी हुअा। वहां को मायु पूर्ण करके मरकर निदान बंध कर लिया कि मैं चक्रवर्ती बन जाऊं। ऐसा बंध करके वह विद्युद्दष्ट्र नाम का विद्याधर हो गया ॥८६॥
मन्नवन् मत्तयान शासारणं विज वेदन् । पिन्न काविट्ट देवन् पेरिय बज्जरायुदन् पिन् ।। पन्न तवत्तिर् पंचानुत्तरत्तमरन् पार् मेल ।
मन्त्रिय पुगळि नान् संजयवन् इन् वरविदामे ॥९८७॥ अर्थ-राजा सिंहसेम मरकर के मशनीकोड नाम का हाथी हो गया। तत्पश्चात् वह हाथी पंचारणुव्रत को धारण कर मरकर सहस्रार कल्प में देव हुमा। तदनन्तर वहां से प्राकर विद्याधरों में किरणवेग नाम का राजा हुमा । तत्पश्चात् इन्द्रिय भोग भोगकर वहां से विरक्त होकर अन्त में दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करके समाधिपूर्वक मरण कर कापिष्ठ कल्प में देव हुमा। वहां से चयकर बचायुष राजा हमा। वहां के राजभोग को भोग अन्त में वैराग्य को प्राप्तकर तपश्चरण करके पचानुत्तर विमान में महमिंद्र देव हुमा । वहां से मनुष्य लोक में आकर संजयंत मुनि होकर तपश्चरण करके मोक्ष चले गये ।।६८७॥
बरत योरवर काकि युरुवर काकि युरुवर पिरवि दोरुं। तुयरत्तै पिळत्तल सोम्ना लिवरगळे सोल बेंडाम् ।। मयरि कन् मरत्ति नीगि नाग पासत्तं वांगि।
युइरोत्तिगिवनो बोडियोलुगुनी युरगर् कोवे ॥१८॥ अर्थ-हे धरणेंद्र सुनो! परस्पर मापस में विरोध होने के कारण अनेक भव २ में दुख सहन करना पडता है। यह बात तुम्हारे अनुभव में प्रत्यक्ष में प्राई होगी। इस समय सिंहसेन महाराज मोर शिवभूति मंत्री इन दोनों का चारित्र ही वर्णन किया है। ये दोनों ही कथा नायक हैं । इस कारण अब तू विक्षुहष्ट्र पर क्रोध करना छोड दो भौर उनको बंधन से मुक्त करो और उन पर दयाभाव रखो ।।६८८॥
येड्लु मिरवन ट्रेन्नरगत्तु लिडुवै तीर्ता। इन्द्र, मिप्पिरवि येल्ला निवारेनक्कु सोल्लि ।।
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