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मेरु मंदर पुराण
वेंद्रवररत्तिर् काक्षि विमल मदाग सेवा । पेंड्रन किरंव नोये इन्न मंडूरुळि सेवन् ॥ ६६६ ॥
अर्थ- - इस प्रकार आदित्यदेव द्वारा कहा हुआ सुनकर धरणेंद्र प्रादित्यदेव से कहने लगे कि हे स्वामी ! मैं पूर्वजन्म में नरक में जब पडा था, तब तुमने वहां मुझे धर्मोपदेश दिया था। उसको सुनकर तुम्हारी कृपा से मैने इस समय चक्रवर्ती होकर जन्म लिया है। अब तुम मेरे ऊपर प्रत्येक भव में उपकार करते हुए आये हो, और मुझ में सम्यक्त्व उत्पन्न किया है । इसलिए आप मेरे गुरु हैं और आगे किए जाने वाले जो कार्य हैं उनको अब कहूंगा ।। ६८६ ॥
विजइन् वलियिर् पोगि मेदक्कोर् तम्मै वव्वि । नंचिरं वकुं वित्तु दंतन् ट्रन् कुलत्तु मिक्क | विजयं परितु बीळं व शिर गुडे परवे पोल् । विजैमा नगरत्तुळ्ळे इरुत्तुव निवरं इंड्रे ॥ ६०॥
अर्थ-विद्या बल से आकाश में गमन करने आदि की जो शक्ति विद्युद्दष्ट्र को प्राप्त है वह प्रागे के लिये विद्या रूप न रहे। जिस प्रकार पक्षी के पंख टूट जाने के बाद वह पक्षी उड नहीं सकता उसी प्रकार यह विद्याधर कहीं विद्या के बल से भाग न जाय, ऐसा करेंगे ।।६६०॥
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ड्रिडा उप वादित्ताव निप्पलं पोरेन्न । पोंडिडा रवेंद कुळादि वर्ग ळे वेगुळि नोंगा ॥ दोंड्रिडा उरंतु मेना निरंव निन्नरुळि नाले । कुल नार्के माविज पनिशैर्गेड्रान् ॥
अर्थ- - इस प्रकार घरणेंद्र की बात सुनकर आदित्य देव कहने लगा कि हे धरणेंद्र ! इस विद्यावर द्वारा कहे हुए अपराध को क्षमा करो। इस पर धरणेंद्र कहता है कि है स्वामी सुनो ! मैं इनके द्वारा किये हुये अपराध के बारे में बिना प्रायश्चित्त दिये नहीं छोडूंगा और विद्याधर की महाविद्या कभी भी इनको साध्य न हो, बल्कि ये विद्याएं स्त्रियों को साध्य हो इस विद्याधर को साध्य न हो । और इसके अतिरिक्त इस पंचम काल में ऐसी विद्या किसी को भी साध्य न हो ऐसी मेरी इच्छा है ।।६६१
६१ ॥
इब्वन्नं शैविट्टेने लिस्ट पिळं पिरंडु मिन्नु । efore तनय मेनि कर्डयर्तन् कळिव्य नाले ॥ येव्वळियान मोडि वेळिय वर तम्मे येल्लाम् । कव्यं गळ पलवं शैवर् मेल्वरुं कालत्तेंड्रान् ॥ ६२ ॥
अर्थ - पुनः वह धरणेंद्र कहता है कि यदि मैं इस प्रकार नहीं करूंगा और विद्याधर
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