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मेद मंदर पुराण
अर्थ - पुनः रत्नायुष यह विचार करता है कि संसार में धर्म कोई वस्तु नहीं है । अपने द्वारा पंचेंद्रिय सुख को भोगना, खाना पीना यह ठीक है। मरकर वापस दूसरी पर्याय धारण करना कायक्लेश तप करना धर्मध्यान करना यह सब पागलपन व मूखं है । देवलोक मैं जाना और मरकर वापत प्राना यह किसने देखा है ? यह सब मुर्खता है। ऐसा वह मानता था और कहता था कि जिस प्रकार एक कुत्ता रोटी का टुकडा लेकर नदी की ओर जाता है मौर अपनी परछाई पानी में देखकर यह समझता है कि दूसरा कुत्ता पानी में और है उसकी रोटी पकड़ने को अपना मुंह खोलता है तो वह अपने मुंह की रोटी भी पानी में गिरा देता है । इसी प्रकार वह विचार करता है। संसार में वर्तमान परिस्थिति को न सुधार कर श्रागे का विचार करना मूर्खता है ।। ८१७ ।।
तोंवत्तार तंवं तुइत्तलल्लदु । वत्ता पिल्लं लुss वेष्णुद |
लंविर् कांचिर माकि मांगरणी । तिन् कुटु ववर सिदं वण्णमे ||८१८ ||
भी नहीं है।
अर्थ - तपश्चरण से उत्पन्न होने वाले दुख को ही अनुभव करता है । सुखलेश मात्र देवगति मिलना, विषय सुख का त्याग करना अथवा विष से प्रमृत मिलना ऐसी भावना वह रत्नायुध करता है और मानता है ||८१८ ||
विनंगळ् वेरुपट्टुदयं शेदला । लिनेय्य सिदय नागि शेलनान् ॥
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मुनिवन् वज्ञ दंतन मुइ मलर् ॥ वनमनो गरम् वंदु नान्निनाम् ॥ ८१६ ॥
अर्थ - इस प्रकार मिथ्यात्व कर्म के उदय से राजा नास्तिक मत के अनुसार विषय सेवन की प्रतिपादन करता था। उसी समय नगर में वज्रदन्त नाम के मुनिराज मनोवेग नाम के उद्यान में चतुविध संघ सहित आकर विराजमान हुए। वे अत्यन्त गंभीर निस्पृही थे । सिंह के समान धीरवीर तथा पराक्रमी थे । सम्यकूदर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन धारा धनाओं में रात दिन पुरुषार्थ करने वाले थे। ऐसे मुनिराज रत्नायुध राजा के उद्यान में पधारे
॥८१॥
मेरुमाल्वन पत्तिरालत्तुल् । वाररणं मलं शूळ निड्र बुं ॥
वीर मादवर् शूळ मंत्त वन् ।
तारकं मदि तानु मोत्तनन् ||८२०॥
अर्थ - प्रत्यन्त निर्दोष व्रत सहित तप करने वाले वे मुनि जिस प्रकार मेरु पर्वत के चारों भोर नंदनवन तथा दिग्गज पर्वतादि होते हैं, उसी प्रकार उन वस्त्रदन्त मुनि के चारों
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