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मेद मंदर पुराण
सेंड्र निडून कंडरियामै या । लोंडू मास् पोरुळोड गुरांगळे ॥७०१ ॥ अचेतनत्ति चेदन मिन्म युं । चेतन त्तलथ चेतन मिन्मयु ॥
मो मूर्ति ये मूर्ति योन ड्रन्मयुं । ती दिलादव सूनियं सेप्पि नेन् ॥७०२ ॥
अर्थ - प्रचेतन द्रव्य में चेतन गुरण नहीं, चेतन द्रव्य में अचेतन गुरण नहीं । मूर्ति रूप द्रव्य में अरूपी गुरण नहीं है । इसलिये सर्वदा नाश नही है । कथंचित् प्रशून्य ऐसे परमागम में महंत जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुश्रा श्रनेकांतवाद है । इस अनेकांतवाद में केवल एकांतवाद को ही मानकर यदि एकांत कोटि सिद्ध करेंगे तो सिद्ध नहीं होगा । प्रत्येक द्रव्य के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग किया है । इसलिये व्यवहार की अपेक्षा से महंत भगवान के वचन के अनुसार हमने प्रतिपादन किया है । यह मार्ग एकांत और अनेकांत रूप में कहे हुए पर किसी भी प्रकार की शंका नहीं करना चाहिये ||७०१ ।। ७०२ ।।
सोन्न वारु विकर्ष मोरु पोरुट् । तन्मं इलेवन मुबलारु मा ॥
ट्रिम्मै इल्लिटु में में इवट्टिन मेर् । सोन्न भंगम मेळ्ळ् सोल्लु वाम् ||७०३ ॥
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अर्थ - पूर्व में कहे हुए नित्य, अनित्य, श्रवाच्य, भिन्न, अभिन्न और शून्य यह छह प्रकार के भेद एक ही वस्तु में होते हैं । श्राप्तेष्ट प्रादि छह द्रव्य पूर्वोक्त तीनों दृष्टांतों में परस्पर में एक होकर रहने के कारण ये छहों स्वभाव से एक ही वस्तु में रहते हैं । इस प्रकार सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए ग्रागम से इस भेद को भली प्रकार समझने के लिए सप्तभंगों का मैं विस्तार से विवेचन करूंगा, तुम सुनो ॥७०३॥
उन्मे नलिन मै युन्मै इन्मयु मुरक्कोनामै । युन्मै नल्लिन्मे युन्मे योडुक्कु नामै ॥
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ननिय मून्ड्र माग नयभंग मेळु मोड्रिर ।
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कन्नुरि मन्नमंगळ कडा वीट्रि नयगळ्वेदे ||७०४ ॥
अर्थ - हे भव्य शिरोमणि राजा किरणवेग ! वस्तु के कथन करने के लिये सात भंग ( तरह) होते हैं । स्यात् प्रस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्याद्द्मवक्तव्य, स्यादस्तिश्रव क्तव्य, ख्यान्नास्ति प्रवक्तव्य, और स्यादस्ति नास्ति प्रवक्तव्य । एक पदार्थ में परस्पर विरोध न करके प्रविरोध रूप से प्रमाण अथवा नय के वाक्य से यह सत् है प्रादि की जो कल्पना की जाती है वह सप्त भंगी है। प्रस्ति द्रव्य और नास्ति द्रव्य इनको पृथक २ करके यदि एक
को
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