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मेरु मंदर पुराण
मायाचार के कारण स्त्रीरूप में जन्म लिया है। और उनको यदि संतान न हो तो दुख होता है। और यदि सन्तान होकर पुत्र का मरना हो जाय तो महान दुख होता है। यदि अपना पति दूसरी स्त्री के साथ प्रेम करता है तो उस स्त्री को दुख होता है । स्त्री स्वतंत्र नहीं है; क्योंकि:
"पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्रो रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ।। इस प्रकार इस श्लोक के अनुसार स्त्री स्वतंत्र कभी नहीं रह सकती, वह अपने दुख से तथा चंचल बुद्धि होने के कारण मोक्ष प्राप्त करने की अधिकारिणी नहीं होती ।।७३८।।
विरद शीलत्त रागि दानमत्तवरक शेदु । अरुगनै शरण मूगि यांदवर शिरप्पु शंदु ।। करवि नर् कनवर पेनुं कऍडे माळरिद ।
उरुवत्ति नीगि कर्प तुत्तम देवरावार् ॥७३६।। अर्थ-पुनः वह मनिराज प्रायिकाओं से कहने लगे कि पंचाणुव्रत,शीलाचार निग्रंथव्रत को धारण करके तपश्चरण करने वाले निग्रंथ व सत्पात्रों को चार प्रकार के दान का देना और अहंत वीतराग जिनेन्द्र देव की भक्ति पूजा करना, ऐसे गुणों को प्राप्त हुए पतिव्रता स्त्रियों के द्वारा किये जाने वाले पुण्य के फल से अगले जन्म में देवमति के सुख का अनुभव करके वहां से चयकर उच्च कुल में जन्मी हुई स्त्रियों में यह सभी गुण रहते हैं। ऐसी कुल-. वान स्त्रियां इस जगत् में बहुत दुर्लभ हैं ।
"कार्येषु दासी कर्णेषु मंत्री, रूपेसु लक्ष्मी क्षमया धरित्री।
स्नेहे च माता, शयनेसु रंभा, षट्कर्मयुक्ता कुलधर्मपत्नी ॥ इस प्रकार जिन स्त्रियों में ये गुण हों वे ही सच्ची स्त्रियां हैं । और अपनी स्त्री पर्याय को धारण करके पंचाणुव्रत का पालन करके मनुष्य पर्याय में आकर जिन दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने की भागी होती हैं ।।७३६।।
मादवं तांगि वैय्यत्तय्यराय बंदु तोंडि। येव मुडिडि वीडु मैयदु वर तैयलाग । नीगि नीदिया नोट बंदीर नीविरि पिरवि नीमि ।
घाति करिंदु वीडु कालत्ता लडेदि रेंड़ान् ॥७४०॥ अर्थ-ऐसी उत्तम स्त्रियां संयम धारण करके देवगति का सुख प्राप्तकर चक्रवर्ती पद का अनुभव करके जिन दीक्षा धारण कर मोक्ष सुख को प्राप्त करती हैं। इस कारण तुम दोनों शीलवतानुष्ठान आदि क्रिया को निरतिचार पालन करो। इससे अगले जन्म में मनुष्य
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