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मेरमंदर पुराण . पर्व-उन किरणय मुनि ने चारणऋद्धि प्राप्त करके ऐसा त्रिकाल योग धारण किया कि वहां अन्य सभी मुनिमरण उनके तपश्चरण के महत्व को देखकर लज्जित हो गये। उन मुनिराज के चारणऋद्धि तथा तपश्चरण के बल से उनको भाकाश मार्ग में जाते देखकर मुनिगण विचार करते हैं कि हमको इतना समय मुनि दीक्षा लिये हुए हो गया माज तक हमें ऐसी ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई। इन नवीन दीक्षित मुनि को इतनी जल्दो ऐसी महान् ऋद्धि केसे प्राप्त हो गई। तदनन्तर वे किरणवेग मुनि इधर उधर विहार करते हुए कांतन नाम के पर्वत पर सिंह के समान वृत्ति धारण किये हुए वहां तप करने लगे ।।७३५ ।
येरि मूगि यनै कुळ्ग यशोधरै इलंगु वान्मेर् । दिरिगिड़ बनय कुळ्गै शिरिदर योडुम् शंवोन् । विरिगिड कुगइन पाडं मंत्तवन दृन्ने बाति ।
हरिगिड विनय रागि इरेवन् पालिरुंद काले ॥७३६।। मर्थ-वे मुनिराज निरतिचार पूर्वक व्रतों का पालन करते हुए उस पर्वत की गुफा उपवास किये हए विराज रहे थे। एक दिन यशोधरा तथा श्रीधरानाम की दोनों पार्थिकाएं प्रसिधारा के समान चारित्र को पालन करती हुई उस कांतनगिरि पर्वत पर पाई और उनने भक्तिपूर्वक मुनिराज को नमस्कार किया ।।७३६।।
विदिइनार् गतिग नान मेविनिडार् कंड मुन् । मदियिनार् पेरिय नीरार् मक्कळाय् वंदु तोडि। विदियिनार् ट्रानं पूजे मंत्तवं शैयदु वोट ।
गतिगळे कडंदु शेल्वार् कारिग यार्गळ् शेल्लार् ॥७३७॥ अर्थ-तदनन्तर मुनिराज की भक्ति स्तुति करके पुनः नमस्कार करके वे आयिकाएं बैठ गई। मुनिराज ने उन दोनों को “सद्धर्मवृद्धि" ऐसा शुभाशीर्वाद दिया। उन यशोधरा श्रीधरा प्रायिकाओं ने विनयपूर्वक प्रार्थना की कि हे प्रभु ! यह जीव संसार में अनादि काल से परिभ्रमण करता पाया है, इसके उद्धार होने का कौनसा उपाय है ? वह हमें कृपा करके बतलाइये । मुनिराज ने कहा कि जीव के उद्धार होने का एक जैन धर्म ही कारण है । चारों गतियों में भ्रमण करते हुए इस जीव को अपने २ परिणामों के अनुसार उच्च नीच गतियों में जाना पड़ता है। जब तक यह जीव भगवान के द्वारा कहे हुए मोक्ष मार्ग को बतलाने वाले वचन व तत्वों को भली भांति से जानकर उस पर सम्यक्त्व सहित श्रद्धा नहीं करता है तब तक यह जीव संसार में परिभ्रमण करता ही रहेगा। जिस समय इस जीव को जिनेंद्र भगवान की वाणी में श्रद्धा हो जाती है, उस समय प्राणी स्वपर भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता है । तब यह थोडे समय में ही तपश्चरण के द्वारा कर्मों का नाश करके संसार से मुक्त • हो जाता है।
भावार्थ-ग्रंथकार ने इस श्लोक में यह विवेचन किया है कि जीव का कल्याण जैन धर्म ही कर सकता है। जैन धर्म पालन करने वाले को भगवान के द्वारा कहे हुए तत्वों पर
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