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मेरु मंदर पुराण अनंतवीर्य अनंतदर्शन और अनंतज्ञान ऐसे अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लिया ॥८०५।।
वेय्यव नेळलं बैय्य व्यापारि पदनं पोल । वय्य मिलनंद नान्म येळंदवक्कनत्तु वानोर् ॥ मेयरु विVिबै येल्ला मरेत्तुडन वंदु सूळंदु ।
पुय्यरु तत्ति नान पुगळंदडि परव लुद्रार् ।।८०६॥ अर्थ-जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही संसारी प्राणी अपने २ कार्य में लग जाते हैं , उसी प्रकार अनादि काल से लगे हुए घातिया कर्मों का नाश होते ही प्रात्मा में रहने वाले अनन्त चतुष्टय उसी क्षण में प्रकाशित हो गये। और चतुणिकाय देवों ने प्राकर चक्रायुध केवली भगवान की भक्ति पूर्वक पूजा, स्तुति करके नमस्कार किया ।।०६।।
गाति नानमै कडदोय नी कडई नान्म यडंदोय नी । वेद नान्गुं विरितोयनी विकल नान्मै विरित्तोय नी॥ केव नान्म केडुत्तोय नो केडिलिब कडलोय निन् । पाद कमवं परिणवारे युलगं परिणय वरुवारे ।।८०७॥
अर्थ-वे देव चक्रायुध केवली भगवान को विनय से भक्तिपूर्वक नमस्कार तथा उनकी स्तुति करके कहने लगे कि हे प्रभु! ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म रूपी शत्रु अनादिकाल से लगे हुए हैं। इन घातिया कर्मों को आप ही नाश करने वाले हो। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुपयोग इन चारों योगों के प्रतिपादन करने वाले प्राप ही हो। मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय चारों ज्ञानों को प्राप्त करने वाले, अनन्त सुख, को प्राप्त करने वाले तथा शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक और स्वाभाविक इन संसार के दुखों के कारण होने वाले पापों का नाश करने वाले आप ही हो। जितने प्राशी मापके घरण कमल की स्तुति करने वाले हैं, वे ही जीव आपके समान पद को प्राप्त कर लेते हैं । भाग्यवान के अलावा प्रापके चरण कमलों की पूजा स्तुति अन्य को प्राप्त नहीं होती है ।।०७।।
पविन कुद्र मरिवोय नी परम नान्मै यो वोय नो। इव मैय्यु इरुकु मळिपोय नी इन्ना पिरवि योरिवोय नो॥ कदमुं मदमुं कामनयुं कडंदु कालर् कांवोय निन् । पद पंगया गळपनिवारे युलगं परिणय वरुवारे ॥८०८॥
अर्थ-क्षुत्पिापासादि बाईस परीषह को जीतने वाले, एकेंद्रियादि षटकाय जीवों को अभयदान देने वाले तथा संसार रूपी दावानल को नाश करने वाले प्राप ही हो। क्रोध, मान, माया, लोम इन चारों कषायों को जीतकर कालरूपी यमराज को नाश करने वाले
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