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मेर मंदर पुराण
तिक्कर मलै पोल शिवन तिति चिन्ना। लकन बंदुदयतुच्चि पर बदे पोल बंदु ॥ चक्क रायुदनुं पिन्ने तरबर मुग्यि शारंदु ।
सुस्किलध्यानं तन्नाल विनंयिक दूर्कलुद्रान् ॥८०३।। मर्ष-जिस प्रकार महामेरु पर्वत के चारों मोर दिग्गज पर्वत रहते हैं , उसी प्रकार कुछ समय तक संघ के साथ विहार करते हुए ध्यानाध्ययन में समय व्यतीत करते हुए वे पक्रायुष मुनि जिस प्रकार सूर्य उदय होकर बारह बजे मध्य में माता है और तीव्र प्रकाशमान होता है उसी प्रकार वे संघों का परित्याग कर एक पर्वत को चोटी पर विराजमान होकर शुक्ल ध्यान के बल से कर्म शत्रु का नाश करने लगा ॥८०३॥
परिशेर् सुरुक्कि वैय्य दुच्चियार वडिवु तन्ने । पुरुषत्ति निन् मूकि नुनि इट्रान् पोरुंद वैयतु ।। तिरिविद योगि नोडं सेंद्र.वंदाडुम् सिदै । युरुव मटि बने युन्न विनेगळे ळुडेंद वंड्रे ॥८०४॥
अर्थ-वे मूनि शुक्लध्यान के बल से बंध का कारण होने वाले परिग्रहादि को मन:पूर्वक त्यागकर त्रिगुप्ति धारक हो गये। पौर सच्चे सुख को प्राप्त किये हुए सिद्ध परमेष्ठी को नाशादृष्टि से अपने में स्थापना करके ध्यान करने लगे। इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरत, प्रमादे और कषाय यह चारों जो बंध के कारण हैं इनका नाश कर आत्म-भावना में लीन होकर स्व-संवेदन ज्ञान से अनुभव में आने वाले सिद्धों के समान निश्चय रत्नत्रय स्वरूप की भावना करते २ दर्शन मोहनीय की सात प्रकृतियां अर्थात मिथ्यात्व, सम्यकमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया, लोभ इस प्रकार सातों प्रकृत्तियों का नाश कर दिया
॥८०४।। मोगणि यत्ति नोडु मप्पत्तेळ पगडि वींडा । वेग योगत्तो डोडा वेळंद शुक्किल ध्यानं ।। वेग योगत्ति नोरेन् पगडि वोळ वळंद वेय्योन् । मेग योगत्तिन वोटिन विरिवन वनंद नानमै ॥८०५॥
अर्थ-उन मुनिराज ने पृथक्त्ववितर्कवीचार वाले शुक्ल ध्यान से ज्ञानावरणी की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, मोहनीय की अट्ठाईस, अंतराय की पाँच, नरक गति, तिर्यंच गति, एकेंद्रिय आदि चार जाति, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, नरक-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ दुभंग, दुःस्वर, अनादेय अयशकीति, नरकायु, असाता वेदनीय नीच गोत्र, ऐसे चौरासी प्रकृतियों का नाश किया। जिस प्रकार सूर्योदय होते ही मेघपटव दूर हो जाते हैं, उसी प्रकार उसी क्षण में चक्रायुध मुनि ने घातिया कर्मों का नाश होते ही अनंत सुख
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