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मेरु मंवर पुराण
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जीव पिता हो जाने के बाद पुत्र पौत्र होता है, माता होकर भगिनी भार्या और कन्या होता है, स्वामी होकर सेवक होता है, यह चिंतन करना संसार विचय है।
इन बारह प्रकार से संयम आदि तथा दश प्रकार के धर्मध्यान पर्यंत अनुष्ठान करने में जो कोई क्रोधादि वश से देवसिक दोष उत्पन्न हो गया हो उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ॥७८१॥
मुडि विल्लदु मुन्नमु मेन करणदर् । दृडयाम् विनय तवनोदि इनिर् ।। टूडेवन् निनि यौवरसन नीनया।
वडिवेल बन् वज्जिर वायुदन् मेल् ॥७८२॥ अर्थ-इसलिये मेरे अंदर अनादि निधन ऐसे आत्मस्वरूप को न समझ कर मैं अनेक पाप कर्मों का उदय करता हुअा संसार में भ्रमण करता पाया हूँ। इस कारण मैं इन बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करके जिनदीक्षा लेकर अपना कल्याण करने की मेरो भावना है। इस प्रकार नह चक्रायुध राजा वैराग्ययुक्त होकर अपने पुत्र वज्रायुध को बुलाकर कहने लगा ।।७८२॥
मुडियु पडियं मुदला यिनचे । तडै वेलरसन नपराजित नाम् ॥ वडिविन मुनि वन् नडिमामलर ।
मुडिइन् ननिया मुनियायिनने ॥७८३॥ अर्थ-हे वज्रायुध ! अनादि काल से मैंने स्वपर का ज्ञान न करके तथा अपने प्रात्म स्वरूप को न जानकर बाह्य पंचेन्द्रिय स्वरूप में मग्न होकर विषयांध होकर मैंने समय व्यर्थ ही बाह्य वस्तुओं में गंवा दिया। अब मेरे प्रात्मा में इन पंचेंद्रिय सुखों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण हेतु जिन दीक्षा लेने की भावना है, अब तुम इस राजभार को सम्हालो। तदनन्तर राजा ने पुत्र का राज्याभिषेक किया और कहने लगा कि जैसे मैंने अब तक राजभार सम्हाला है, उसी प्रकार तुम भी धर्मध्यान पूर्वक प्रात्म-कल्याण हेतु अपने पुत्र को राज्यभार देकर जिन दीक्षा लेना। यही मनुष्य जन्म का सार है । ऐसा उपदेश देकर उसने चक्रायुध अपराजित नाम के मुनि के पास जाकर भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और गुरु से प्रार्थना की कि मेरी आत्मा का इस संसार से उद्धार करो। मुनि महाराज ने तथाऽस्तु कहा मौर विधि पूर्वक जिन दीक्षा दे दी ।।७८०
चक्करायुधनु पोगि तादै तन्पादं सांदु। मिक्कमा मुनिवनागि वेळ्ळि. यादि योगि ॥ निक्कु वेविनंग नींग विरापगल पडिम निड.। पक्कनोन पिरवि योडु भावने पईड, शेंड्रान् ॥७४८॥
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