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मेरु मंदर पुराण
विनयेट्टि नुदयत्तागुं विकारंगळ् विपाक मेंड.। मनं वैत्तुमुनिवन् सोल्ल बज्जरायुधनं भोग। तनै विट्ट मनत्तनागि सेदंगै चोरडिइर सेल्लु ।
मन मुक्कु मिरद माल यार वत्ति नरिदिर् पोंडार् ॥७६१॥ मर्थ-पाठों कमों के उदय से विकारी भाव यह सब कर्म के विपाक हैं-ऐसा मन में विचार करके अपने पिता वक्रायुध मुनि जिस प्रकार वैराग्य से युक्त तपस्या करते थे उसी प्रकार वज्रायुध ने भी अपने मन में वैराग्य लाकर स्त्री, पुत्र, वैभव आदि को त्याग कर दिया
॥७६१।। भोगित्त भोगन ताने पुदिय वै यागि तोडि। मोगत्त पेरुक्क लल्लान् मुडिवंदा चेल्व मायुं ॥ मेगत्तिन् मिनिन् मोयु मिवटै नामुन्नं नींगि।
नागत्तै वोट नल्गु नद्रवं पुरिदु मेंड्रान् ॥७६२॥ अर्थ-राजा वजायुध ने सोचा कि भोगोपभोगवस्तु ही मुझे प्रिय दीखती है इनको अनादि काल से मैं देखता पा रहा है। भोगोपभोग वस्तु ही सारी देखता आया हूँ । वास्तव में मात्मा का स्वरूप ही एक सच्चा है । आज तक भोगोपभोगवस्तु कोही भोगते हुए अनेक प्रकार का अनुभव किया और इस सम्पत्ति को मैंने मेरी समझ कर भोगा । वह प्राकाश की बिजली को चमक के समान क्षणिक है। इसलिये यह सारी पुद्गल वस्तुएं क्षणिक हैं। सभी मर्यादा पूर्ण होने पर प्रात्मा से अलग होने वाली हैं। इसलिए यह सब वैभव आदि मुझको छोडे इससे पूर्व ही मैं इनको छोड दूं तो ठीक है । अतःप्रखंड मोक्ष सुख को उत्पन्न करने वाले मोक्ष मार्ग को ग्रहण करने की मन में भावना उनके उत्पन्न हुई अर्थात् दीक्षा लेने की भावना जागृत हुई।
॥६ ॥ इरद नायुदन कूवि मडियिनै ईदु वेदन् । विरमना मनंत्त नागि वेळ्कइन् वोळ्दु पोगि। नुरंयुना बगैर पिन्ना लक्कर विडत्तिर् पाव ।
निरंना लुदयं शेय्य निड्डूिं तुंव मेंडान् ॥७६३॥ अर्थ-इस प्रकार वज्रायुध ने वैराग्य से युक्त होकर अपने पुत्र रत्नायुध को बुलाया और उसको राज्यभार सम्हला दिया और कहा कि यदि तुम इस संसार में लीन होंगे तो पूर्व कर्म के उदय से इस सारी सम्पत्ति का नाश होकर अनेक प्रकार के सुख दुख भोगने पडेंगे। इसलिये इस संपत्ति में मोहित न होकर परम्परा मोक्ष प्राप्ति हेतु की भावना से पंचेन्द्रिय विषयों में मूच्छित न होकर भगवान जिनेन्द्र के कहे हुए मार्ग में रुचि रखकर यथाशक्ति अपने जीवन को सुधारने की उत्कंठा रखो ॥७६३।।
तिरुमलि यार माल तिळक्कं तिन् पुयत्तरागि। युरुमलि कळिदि नुच्चि योगिय कुडई नीळल् ।
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