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मेरु मंदर पुराण
[ २६७ आगमेष्टम् प्रतिज्ञानेष्टम्, कर्म-फल- संबंधेष्टम्, संसारेष्टम्, मोक्षेष्टम् आदि इष्टों को और लोक प्रवृत्ति दुष्टम्, पुरुष प्रवृत्ति दुष्टम्, शास्त्र प्रवृत्ति दुष्टम्, इस प्रकार तीनों दृष्टियों को नाश कर तथा अपने अभिप्रायों को त्यागकर विरोध होने वाले नित्यमेव प्रनित्यमेव. प्रवाच्यमेव, भिन्नमेव, अभिन्नमेव, शून्यमेव ऐसे इन छह प्रकार के तत्त्वों का त्याग करके आगे, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ऐसे इन तत्त्वों का मैं प्रतिपानन करूंगा उसको ध्यान पूर्वक सुनो ! ऐसा हरिचन्द्र मुनिराज ने उस किरणवेग से कहा ।। ६६४।।
उन्मेइल्लद निकुयु मिलें । युन्मै इल्लद निर्कु न मिलं ॥
युन्मं इल्लद निर् पयनु मिले । युन्मं इल्लवर् कुन्मुयु मिल्लेये ॥ ६६५ ॥
अर्थ - पुनः वे हरिचन्द्र मुनिराज कहने लगे कि सत्स्वरूप में वचनीय नहीं है । और उस वचन में ज्ञान भी नहीं है । सत्य रहित वस्तु असत्य वस्तु सत्य ऐसे गुरण नहीं है । ऐसा सुख बोध नाम के ग्रंथ विशेष रूप से विवेचन किया है। इस संबंध में विशेष विवरण को
श्रत्तियन् वयत्तालेंड्र नित्तमां ।
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सित्तमं मोळियुं तिरि विन्मया ॥ नित्तमे वेतिरेगत नित्तमाम् ।
सित्तमं मोळियं सिदे वेदलाल् ||६६६||
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अर्थ - अस्तित्व रूप से रहने वाले सत्यगुरण को निश्चय से सदैव सत्य गुरण को जानने वाले मन के द्वारा कहने वाले वचनों का नाश न होने कारण निश्चय से गुण और गुणी दोनों एक ही हैं । ऐसा जानने वाले मन, वचन स्यात् नित्य स्वरूप है। इससे एक द्रव्य, अन्वयव्यतिरेक गुणों से नित्यानित्य होता है । सत्य ऐसे कहा हुआ प्रस्तित्व स्वरूप उत्पाद व्यय से युक्त है ||६६६ ।।
श्रन्वयं व्यतिरेग मनंद मत्त् । तन्मयार् पोरु डानिगळं पडि | सोनिगळं व तनिचोल्ल लिलैयत् । तन्मयार् पोरुडान दबाचियम् । ६९७||
रहने वाली वस्तु
में
फल ही नहीं है । पांचवें अध्याय में समझ लेना चाहिये ।
के
।। ६६५।।
अर्थ - निश्चय गुण पर्यायगुण को प्राप्त होकर अनन्त गुण से युक्त ऐसे जोबादि जीव के विषय को सामान्य रीति से सामान्य रूप में तुम्हारे विषय को उस द्रव्य के विशेष गुणों की शक्ति न कहने के कारण प्रवाच्य होता है । यह स्याद्वाद रूप नहीं है । इसलिये यह तत्त्व वाच्याऽवाच्य रूप कहलाता है : । ६६७।।
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