________________
मेरु मंदर पुराण
[ ३०५ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायरूपी तरंगों का उपशम होकर सम्यक विशुद्ध परिणाम को प्राप्त हया यह जीव संसार रूपी सागर का अन्त करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है ।।७१६।।७२०॥
मिच्चत्त यगडि मेळू विरगिनान् लुवस मिप्प । उच्घत्ति नि वीर मुपशम सम्मत्तिट्टि । मिच्चत्त पगड़ि वंदमुदल व्यापार नींगा।
बच्चत्तै विनिकट काकि येद मूळतळबु निकुं ॥७२१।। अर्थ-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों का क्रम से उपशम करके रत्न पर्वत पर से मनुष्य के नीचे गिरने में वह जो रहने का समय होता है वह जीव उपशम सम्यक दृष्टि होता है। सम्यक्दृष्टि जीव एक मुहूर्त पर्यंत मिथ्यात्व प्रकृति का बंध करने वाली प्रकृति, कर्म प्रकृति को रोकता है ।।७२१॥
उपशम कालत्तुळळो अनंतानुवंधि तोंड्रिर् । कुबद शादं शम्याट्टि यांगुण त यदु ॥ मुपशम कालत्तिन पिन् मूंड्रत्तोंड दय मादल । सववभा मिच्चं सम्मा मिच्चिल तन्म तानां ॥७२२।।
अर्थ-उस उपशम काल के अन्तर्मुहर्त तक अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया और अनंतानुबंधी लोभ इन चारों कषायों में से किसी भी एक कषाय का रत्न पर्वत पर से मनुष्य के नीचे गिरने के समय तक के बीच का समय के समान भाग वाले को सासादन गुणस्थान प्राप्त होता है। उस उपशम काल के अनन्तर उक्त प्रकृतियों में मिश्र प्रकृति का उदय हो जावे तो वह मिश्र गुणस्थानी कहा जाता है। सम्यक्प्रकृति का यदि उदय हो जाय तो वह सम्यक्दृष्टि गुणस्थान कहलाता है ।।७२२।।
वेदगं मुदित्त पोदिन मैयुनर प्रोडु काक्षि । कोयादु मो कुटु मैदा तेरिपुदि विनंगडंमै ॥ बोदियुं काक्षि दान पूरण शेंड. निड.: घाद वेदक मुन्नेले काक्षि काई कमदामें ॥७२३॥
अर्थ-सम्यक् प्रकृति का यदि उदय हो जावे तो वह अपने प्रात्म-स्वरूप को जान लेता है । और सम्यक्त्व सहित ज्ञान वाला होकर, सम्पूर्ण दोषों से मुक्त होकर पाप कर्मों का नाश करता है । तब वह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान पूर्ण हो जाने के बाद वह वेदक सम्यक्त्व पूर्व में कहे हुए सात प्रकृतियों का नाश करने वाला क्षायिक सम्यक दृष्टि कहलाता है। इस प्रकार क्षायिक गुण को प्राप्त हुए भव्य जीव को क्षायिक सम्यक्दृष्टि कहते हैं ।।७४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org