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मेरु मंदर पुराण उडंबु तानुइर् कोयदु मुंडेनि । रडंद तन्नुरै ज्ञाल विरोधिया । मुडंबु तन्नळ वायुड निड. पिन् । विडं पडित्तुइरबुदु वीळंददे ॥६८८॥
अथे-शरीर के नाश होने के पश्चात् जीव रहता है, यदि आप ऐसा कहोगे तो तुम्हारे द्वारा माने गये अभिन्न मत माने जा सकते हैं, यह ठीक है, परन्तु तुम्हारे अभिन्न मत के समान पुद्गल को छोडकर जाने वाले जीव को देखने वाला कोई नहीं है । जीव के निकल जाने के बाद पुद्गल मात्र ही दीखता है । और पूर्व जन्म में अशुभ कार्य के द्वारा पापोपार्जन किया हुमा जीव शरीर प्रमारण होता है यदि ऐसा कहना है तो सम्पूर्ण जगत में इसका प्रचार है यह बात जगत में प्रसिद्ध है। इसलिये सदैव जीवात्मा एक ही कहना, यह तुम्हारा अभिन्न मत मागम के विरुद्ध प्राता है ।।६८८।।
तत्तु वंनिदु वैदुव दंडनि । लुत्तौ वामय विटुइ रोंड, दान् । शित्तिय दुव दिन् महर् सिद यान्। मुत्ति यद मुयलुथ देन्कोलो ॥६८९॥
अर्थ-तत्त्वों का स्वरूप दो प्रकार का है। जीव तत्त्व का एक प्रकार से रहना, ऐसा कहना भ्रम है। जीव अपने धारण किये हुए शरीर को छोडकर जाने के बाद दूसरा शरीर धारण नहीं करता-यदि आप ऐसा कहेंगे तो मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा करने वाले ज्ञानी लोग तपस्या क्यों करते हैं ? तपस्या करने से क्या लाभ है? आप के कहे गये मत के अनुसार ज्ञानी लोग तपश्चरण करते हैं । अतः ऐसा सिद्ध नहीं होता ॥६८६॥
काक्षिये नुडित्तिडा काटि युव, विट । ताक्षिया लोंडेनि लंवग नुक्किळ् । माक्षियां वैयगमट्र, नक्कु योन् । ट्राक्षिया लोंडेवि लार विलक्कु वार ॥६६०॥
अर्थ-इस लोक में दीखने वाले पुरुष प्रवृत्ति दुष्टम् , शास्त्र प्रवृत्ति दुष्टम् , लोक प्रवृत्ति दुष्टम्, ऐसा कहने के लिये शास्त्र प्रवृत्ति ऐसा कहने में विरोध रहित परस्पर में भिन्न २ स्थिति को बतलाया हुआ उसके स्वाभाविक गुणों से भली भांति न जानकर तथा न समझते हुए अपने द्वारा किया हुआ सर्वथा अभिन्न तत्व के बराबर है । ऐसा ग्रहण करके कहने वालों का यह मत है। जिस प्रकार अंधे को रात दिन समान दीखता है उसी प्रकार एकांत मत वाले को कितना ही समझाया जावे वह अपने हठवाद को नहीं छोडता है ।॥१९॥
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