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मेरु मंदर पुराण
भगवान के मंडप में गया और जैसे सुन्दर कमल की कली आपस में जुडी हो उसी प्रकार दोनों हाथ जोडकर किरणवेग ने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया ।। ६२६॥
मलर कैई नंदिमामेरु सूळ्वरु ।
मलर कदि नरुक्क निर किरण वेगन् ट्रान् ॥
पलसुरे वलं वर परमन् कोइलु । मिलेयुरु कदबंग नोंगि निड्रवे ॥ ६२७|
अर्थ -- तत्पश्चात् वह किरणवेग अपने हाथ में अत्यन्त सुगंधित पुष्प लेकर जिस प्रकार मेरु पर्वत को सूर्य प्रदक्षिणा देकर आता है उसी प्रकार वह जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करता हुआ तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के मंदिर में जाता है और मंदिर में घुसते समय उस चैत्यालय के द्वार अपने प्राप खुल जाते हैं ||६२७॥
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केडुकल कंड बन्नाय् केन् केलिर् पोर् । कुडे मुम्मं नोळळं कोने कांडलु । मडि मिसै गलर् सोरिंदरट्रि बि नार् । पडि मिस कलिरु पोर् परिंग वेळंदनन् ||६२८ ॥
अर्थ-किवाडों के खुलते ही जिस प्रकार एक नाव नदी में जाते समय रास्ता भूल कर दूसरी जगह जाने तथा पुनः प्रयत्न करने पर अपने सही रास्ते पर आ जाने से मल्लाह प्रसन्न होता है उसी प्रकार वह किरणवेग महंत भगवान के प्रतिकृत को देखकर प्रत्यन्त संतोष व मानन्द सहित भगवान के चरण कमलों में वह सुगन्धित पुष्प अर्पण कर साष्टांग नमस्कार करके खडा हो गया ॥ ६२८ ॥
मरिण निलं. सेंदनम् कोंडु मट्टिया । वरिगप्पेर बरुच्वनं विदियि नचिया ||
विनंला रिरंवनं परिंदेळंद पिन् ।
ट्र. रिण पहु विनय वन् द्र. दि तोडंगि नान् । ६२६ ।
अर्थ-तत्पश्चात् सुगन्धित चन्दन मिश्रित पानी से शुद्ध की गई भूमि पर बैठ कर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा की व कर्म निर्जरा का कारण भूत प्रत्यन्त भक्ति पूर्वक जिन स्तुति की ।। ६२९ ।।
अरिविना लरिया व वरिवनी । पोरिनाल भोगिमल्लनि ॥ मरुविलाद गुरणत्तने वाल्तु मा । टूरिविलेन येनर वेदने ॥६३०॥
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