________________
-~-
~rawwww..-...
२६२ ]
मेर मंदर पुराण मॅड्रेनि लोंड्रन डागुमामेनि लाळयदान्टा ।
नोंड्रेन उरत्तु पेट्र ऊदिययेन् कोलोवे ॥६७७॥ प्रर्थ-जीवादि सभी द्रव्य एक परमात्मा बहु प्राधेयवर्ती है।
यथा-मृतपिण्डमेकं, बहुभांडरूपं, सुवर्णमेकं बहु भूषणात्मकं । गोक्षीरमेकं बहुधेनुजातं, एक परमात्म तत्त्वं बहुदेशवति ॥
अर्थात् एक मृत्तिका पिंड में बहुत से बर्तन तैयार होते हैं, एक स्वर्ण में कई आभूपण तैयार होते हैं। दूध एक ही है किंतु गायों की संख्या अनेक है। उसी प्रकार एक परमात्मा अनेक रूप धारण करता है ऐसा सर्वथा अभिन्न मत वालों का मत है इस प्रकार अभिन्न मतों द्वारा कहना सर्वथा भिन्न है ऐसा लोग कहते हैं सर्वथा भिन्न सर्वथा अभिन्न है ऐसा कहने वाले दोनों ही मत वालों से मोक्ष मार्ग में बाधा आती है, इनके मत पर श्रद्धान करना उचित नहीं। यह भिन्न है ऐसा कहने वाले अद्वैतवादी का मत ठीक नहीं, ऐसा कहने से कोई लाभ नहीं है ॥६७०॥
वंडन उरैक्कू मारि तीवेयिर कोदुंगुमोडि । तिन नडिडा रिडा मन्न चोरु तेडिये पशितुरुंगु ॥ मेंड्रिडा विरंडुरैकु मेन्नै पाकि लेला ।
मोड्न उरकु वाये युन्मत्त चरित मायते ॥६७८॥ अर्थ -यदि अभिन्न मत वाले ऐसा कहेंगे तो पानी के बरसने, धूप को देखने तथा अग्नि के जलते समय, अर्थात् धूप में चलते समय, वन में वृक्ष के नीचे बैठने आदि सारी बातें सारे तत्त्व प्रसिद्ध ठहरे । यह पांव के नीचे की मिट्टी को खाकर अपनी भूख क्यों नहीं मिटाता रोटी को क्यों ढंढता है। ऐसा अभिन्न मत वालों के कहने में प्रत्यक्ष रूप से विरोध आता है।
॥६७ ॥ विन्मदि येनिला मन्त्र कर्कळि । मुनिला नीरगत्तुरवु पोल ॥ कण्णुरु कउंवोरा कायं पोलवु ।
मेनिला कायोत्तु ळुइर मोंडे निल ॥६७९॥ अर्थ-बहुत से फलों से भरे हुए पात्र में प्राकाश में रहने वाले चंद का चिंब प्रत्येक पात्र में प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रैकार एक प्रात्मा सम्पूर्ण शरीर में दिखता है । इस प्रकार तुम कहते हो तो-॥६७६।।
छायकु तन्मै तानेंगु मोत्तपो। लायु नरि यिब तुंब मादिगळ् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org