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मेर मंदर पुराण
[ २७९ अर्थ-वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से युक्त होते हए सत्य है। यदि वस्तु इस प्रकार न रह कर सदैव ही नित्य रहे तो संसार से कोई भी जीव मुक्त न होकर उसको संसार में ही रहना पडेगा। और भगवान के मुख से कहा हुमा शास्त्र भी असत्य मानना पडेगा। सर्वदा नित्य ही है ऐसा कहा जाय तो प्राप्तेष्टम्, संसार इष्टम, मोक्षेष्टम् इस प्रकार कहे हुए सभी वचन असत्य हो जायेंगे ॥६४२।।
विनै इनै शैदलुं तुयित्तलु मिले । निनवदु तोड्रि मीदुर्गव, निलै ॥ इनय तान वेडिय विट्ट मारोडु ।
मुनैदलुं शेयु नित्त मुटु वेंडिनाल् ॥६४३॥ अर्थ-तत्व सदैव नित्य ही है ऐसा कहने से शुभाशुभ कर्म, पाप-पुण्य यह सभी नहीं बन सकते हैं और जप, तप, ध्यान, व्रत, नियम तथा उसका फल स्वर्ग, नरक प्रादि बन नहीं सकते । यदि यह नहीं बने तो जीव के द्वारा किए जाने वाले पाप कर्म नहीं संभवते । ऐसे दीखने वाले सभी कूटस्थ हो जायेंगे । ६४३॥
कडन् कोडुत्तान कोळान कोंडवन कोडान । मडंदै तन् शिरुवनु वळचि ये दिडान् । ट्रोडगिये नन मुडित्तोदि नान् सोलान् ।
ट्रिडं पोरु ळेरिणट् मून्ड्र. मारदुं ॥६४४॥ अर्थ-बस्तु सर्वथा नित्य ही है ऐसा कहने से संसार की सभी वस्तु लेन देन तथा सारा ब्यवहार बन्द हो जावेगा। और सभी व्यावहारिक क्रियाओं का भी प्रभाव हो जायेगा। व्यावहारिक क्रियाओं का प्रभाव हो जाने से पूर्वापर विरोध आता है। इस कारण जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हा वचन कथंचित् नित्य अनित्य है ऐसा मानने से सभी व्यवहार क्रिया बन सकती है । स्वर्ग मोक्ष भी तभी बन सकता है ।।६४४।।
तन्सोले मारागि मेोळळिदं तन् । पिन् पिरन् कोळ् पिडि तिट्ट तिट्टमा ॥ मोनबदि नोडु मारद उम् पोरु ।
निड्दे येव वर् निर्क निर्कवे ॥६४५॥ अर्थ-सर्वथा नित्य ही है ऐसा कहने वाले बातचीत कहना सुनना दृष्टांत आदि जो व्यवहार की बातें है, यह संभावित नहीं होती है। इसी प्रकार पूर्वापर विरुद्ध कहने वाले क्षणिकवादियों का कहना भी घटित नहीं होता है ६४५।।
अनित्तमे तत्वमेन्नु मातन । निनप्पु वाचगमुं पोरंळु विना ।।
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